फरवरी 1922 में अगर चौरी-चौरा की घटना न घटती तो गुजरात का बारदोली शायद सविनय अवज्ञा शुरू करने के लिए जाना जाता. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. 1926 में बारदोली तालुका में किसानों से वसूले जाने वाले राजस्व में 30% कई वृद्धि कर दी गई. यह अन्याय था. किसानों ने इसका विरोध करने और बढ़ी हुई मालगुजारी न भरने का फैसला किया. लेकिन सरकारी तंत्र को नीचा दिखाना असंभव नहीं होता लेकिन उससे टकराना मुश्किल जरूर होता है. बारदोली के किसानों को एक ऐसे नेता की तलाश थी जो डरे हुए किसानों को उनकी ताकत का एहसास कराए, जो मुर्दों में भी प्राण फूंक दे.
बैरिस्टर बल्लभ भाई (पटेल) उस समय तक गुजरात में गांधी के बाद नंबर दो के नेता था. किसानों ने उन्हें बारदोली आने और नेतृत्व करने का निमंत्रण दिया. वे तुरंत बारदोली आए लेकिन नेतृत्व करने से पहले पूरे मामले को अच्छी तरह समझा और गांधी जी को समझाया. बढ़ी हुई मालगुजारी के विरोध में चलने वाले इस आंदोलन को नेतृत्व तो उन्होंने दिया लेकिन एक हफ्ते के समय के साथ... यह समय किसानों को दिया गया था, यह सोच-विचार करने के लिए कि अहिंसक आंदोलन करने के दौरान क्या-क्या सहना पड़ सकता है,सरकार क्या-क्या जुल्म कर सकती है.
इस लड़ाई में मैं केवल आप लोगों के थोड़े से पैसे बचाने के लिए नहीं कूदा हूँ. मैं तो बारदोली के किसानों की लड़ाई द्वारा गुजरात के सारे किसानों को पाठ सिखाना चाहता हूं. मैं उन्हें यह सिखाना चाहता हूं कि अंग्रेज सरकार का राज्य सिर्फ उनकी निर्बलता के कारण ही चलता है. आप ही देखिये कि एक ओर तो सरकार प्रजा के हाथ में मुल्की शासन सौंपने की बात करती है और दूसरी ओर यहा किसानों की जमीनें खालसा करने की चाल चल रही है. ये सब कोरी धमकियां हैं. जिसे सरकारी नौकरी करनी है, वह इन धमकियों से डर सकता है. किसान के बेटे को इनसे डरनेनका कोई कारण नहीं है. उसे तो विश्वास होना चाहिये कि यह जमीन हमारे बापदादी की थी और हमारी ही रहेगी.
सरदार बल्लभ भाई पटेल पर किताब लिखने वाले लेखक रावजी भाई ने लिखा है कि यहाँ बल्लभ भाई की आवाज़ में जो तेज और आंखों में जो आग दिखाई दी, वह पहली बार थी. किसान बल्लभ भाई के पीछे चल पड़े. इसी दौरान गांधी जी भी बारदोली आए. लोगों ने उनसे भाषण देने की गुजारिश की लेकिन उन्होंने ऐसा न करते हुए कहा; "बारदोली के सरदार की आज्ञा है कि कोई भाषण न दे. मैं सरदार की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता."
कुछ जगहों पर मिलता है कि ये बारदोली की महिलाएं थीं, जिन्होंने बल्लभ भाई को 'सरदार' की उपाधि दी थी और इसे ही गांधी जी दोहरा रहे थे. बारदोली के लोग मानो एक दैवीय शक्ति का अनुभव करने लगे. पूरा बारदोली एकजुट हो गया. यह पूरा आंदोलन अहिंसक था. पूरे इलाके में मालगुजारी देने से इनकार कर दिया गया. इलाके में रहने वाले अधिकारियों/कर्मचारियों का सामाजिक बहिष्कार होने लगा. अब सरकार समझौते के लिए तनिक उदार हुई लेकिन ख़बरें आने लगी कि राजस्व वृद्धि 30 से से घटाकर 21-22% की जाए. कुछ किसान-काश्तकार भी ढीले पड़े. लेकिन सरदार नहीं डिगे. यह 'लौह-पुरुष' की झलक थी. उन्होंने संदेश दिया; "समय से पहले आम का फल तोड़ेंगे तो वह खट्टा होगा. लेकिन यदि आप उसे पकने देंगे तो वह अपने आप टूट जाएगा."
बातचीत-बैठकों के दौर के गांधी जी का संदेश आया; "हमने जिस पुरुष को अपना सरदार बनाया, उसकी आज्ञा का हमें अक्षरशः पालन करना चाहिए. ऐसा करना हमारा धर्म है. यह बात सच है कि मैं सरदार का बड़ा भाई हूँ लेकिन सार्वजनिक जीवन में हम जिसके अधीन काम करें, वह हमारा पुत्र हो या छोटा भाई हो, तो भी हमें उसकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए. यह कोई नया नियम नहीं है. यह तो हमारा प्राचीन धर्म है. इस धर्म का पालन करने के लिए श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने और युधिष्ठिर राजा के राजसूय यज्ञ में जूठी पत्तलें उठाईं. इसलिए आज तो मैं आपको केवल धन्यवाद ही देता हूँ. वल्लभ भाई ने आपकी प्रसिद्धि सारे देशमें फैला दी है. सरकार ने आपको सारे जगत में प्रसिद्ध कर दिया है. भविष्य में आपको इससे भी अधिक बड़ी विजय प्राप्त होगी."
जैसा गांधी जी ने लिखा कि प्रसिद्धि जगत में फैल गई है तो तत्कालीन वायसराय इरविन भी परेशान हुए और उन्होंने तत्काल मामले को रफा-दफा करने के लिए मैक्सवेल-ब्रूमफील्ड कमिशन का गठन किया. इस कमीशन ने वृद्धि को बहुत ज्यादा पाया और इसे घटाकर महज़ 6% कर दिया.
आम का फल पक गया, देश को सरदार मिल गया!
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