गांधी का अधूरा वादा और 100 साल पुराना महाबोधि मुक्ति आंदोलन
बौद्धों को महाबोधि महाविहार लौटाने की लड़ाई 100 साल से जारी है। गांधी का वादा अब भी अधूरा है।
महाबोधि महाविहार को बौद्धों को सौंपने की कानूनी और वैश्विक लड़ाई की शुरुआत 1891 में श्रीलंका के बौद्ध सुधारक अनागारिक धम्मपाल ने की। उनकी इस मुहिम को भारत के विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने भी समर्थन दिया।
बोधगया आंदोलन की वर्तमान स्थिति
आज देशभर के बौद्ध समुदाय, खासकर बिहार, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र और लद्दाख के लोग, महाबोधि मंदिर को ब्राह्मणों और गैर-बौद्धों के नियंत्रण से मुक्त कराने की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। गया में 12 फरवरी से बौद्ध भिक्षु अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं, जिन्हें 500 से अधिक संगठनों और हजारों नागरिकों का समर्थन मिल रहा है।
यह आंदोलन अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी फैल चुका है। अमेरिका, कनाडा, बांग्लादेश, थाईलैंड, लाओस, श्रीलंका और ताइवान के बौद्ध समुदाय इसके समर्थन में सामने आए हैं। “In Solidarity: Demand Buddhist Control Over the Mahabodhi Temple” नामक याचिका को हज़ारों लोगों का समर्थन प्राप्त हो चुका है।
कैसे शुरू हुआ था आंदोलन: धम्मपाल की विरासत
धम्मपाल, जो मूलतः श्रीलंका के एक समृद्ध ईसाई परिवार से थे, ने बौद्ध धम्म अपनाकर बुद्ध के संदेश को फैलाने में जीवन समर्पित कर दिया। 1891 में जब वे जापानी भिक्षु कोजुन के साथ बोधगया पहुंचे, तो पाया कि महाबोधि मंदिर एक हिंदू शैव महंत के नियंत्रण में था। बौद्धों को अपने ही धर्मस्थल में प्रवेश नहीं मिलता था।
इसके विरोध में उन्होंने कोलकाता में महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की, “महाबोधि” नामक पत्रिका निकाली और बौद्ध साहित्य का प्रकाशन शुरू किया। उन्होंने दुनिया भर में समर्थन जुटाया—जापान, चीन, इंग्लैंड, अमेरिका, थाईलैंड और बर्मा की यात्राएं कीं।
1893 में उन्होंने शिकागो विश्व धर्म संसद में बौद्ध धम्म पर ऐतिहासिक भाषण दिया। अमेरिका की मैरी फोस्टर सहित अनेक लोग इस आंदोलन से जुड़े और आर्थिक समर्थन दिया।
1895 में जब धम्मपाल ने महाविहार में बुद्ध की मूर्ति स्थापित करने का प्रयास किया, तो महंतों ने उन पर हमला किया। इसके बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई आज भी जारी है।
गांधी का वादा और सांकृत्यायन का इस्तीफा
1942 में गया में कांग्रेस की बैठक के दौरान राहुल सांकृत्यायन ने महाबोधि मंदिर को बौद्धों को सौंपने की मांग रखी, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने इसे नजरअंदाज कर दिया। निराश होकर उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस सचिव पद से इस्तीफा दे दिया।
जब मामला महात्मा गांधी के सामने आया, तो उन्होंने कहा, “पहले आज़ादी आ जाए, फिर इस पर विचार करेंगे।” यह वादा बौद्धों के लिए आशा की किरण बना, लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी इसे पूरा नहीं किया गया। गांधी की हत्या के साथ यह वादा अधूरा रह गया।
1949 में बिहार सरकार ने बोधगया मंदिर अधिनियम पास किया, जिसमें मंदिर प्रबंधन समिति में हिंदू बहुलता रखी गई, जिसका बौद्धों ने विरोध किया।
आज का संघर्ष: पहचान और न्याय की लड़ाई
आज का महाबोधि आंदोलन केवल एक धार्मिक या कानूनी मुद्दा नहीं, बल्कि न्याय, गरिमा और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई बन चुका है। सोशल मीडिया पर बौद्ध अनुयायी इस आंदोलन से जुड़ी डीपी लगाकर समर्थन दे रहे हैं। बिहार सरकार पर दबाव लगातार बढ़ रहा है।
दलित-आदिवासी कार्यकर्ता, खासकर हसराज मीणा, ने सरकार में बैठे बौद्ध अनुयायियों की चुप्पी पर सवाल उठाया है। उन्होंने लिखा:
“महाबोधि मुक्ति आंदोलन पर चुप्पी उन लोगों की दोहरी मानसिकता उजागर करती है, जो सिर्फ अवसरवादिता के लिए बौद्ध धर्म का नाम लेते हैं। मोदी, अठावले, रिजिजू और मंडल जैसे लोग बुद्ध के नाम का उपयोग करते हैं, लेकिन उसके मूल सिद्धांतों की रक्षा के समय चुप रहते हैं। ये आरएसएस की मनुवादी सोच के प्रतिनिधि हैं, जो बौद्ध धर्म और बहुजनों को केवल वोट बैंक के रूप में देखते हैं।”
निष्कर्ष
अनागारिक धम्मपाल की विरासत और गांधी के अधूरे वादे को आगे बढ़ाते हुए यह आंदोलन आज भी जारी है। महाबोधि महाविहार सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि बौद्ध समुदाय की ऐतिहासिक पहचान और आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है।
अब सवाल यह है:
क्या भारत बौद्धों से किया अपना वादा निभाएगा?
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