डरी हुई न्यायपालिका लोक हित में नहीं
भारतीय लोकतंत्र की संरचना तीन स्तंभों — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — पर टिकी हुई है। इनमें न्यायपालिका को एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और संविधान-संरक्षक संस्था माना गया है, जिसका कर्तव्य है — सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करना। लेकिन व्यवहार में अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि न्यायपालिका की सक्रियता या निष्क्रियता, सरकार की ताक़त या कमजोरी से जुड़ी होती है। यही विडंबना इस लेख का विषय है।
मजबूत सरकार और मौन न्यायपालिका
जब केंद्र में एक दल की पूर्ण बहुमत वाली, मज़बूत और केंद्रीकृत सरकार होती है, तो देखा गया है कि न्यायपालिका उसके खिलाफ दायर मामलों में असाधारण सावधानी बरतती है — कभी निर्णय को टालकर, कभी प्रक्रियात्मक पेंचों में उलझाकर, और कभी बेहद संक्षिप्त और सरकार-हितैषी निर्णय देकर। ऐसा आभास होता है मानो न्यायपालिका सरकार के खिलाफ निर्णय देने से हिचक रही हो।
इस हिचक के पीछे कई संभावित कारक हो सकते हैं — राजनीतिक दबाव, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली में कार्यपालिका की भूमिका, और सबसे ख़तरनाक — महाभियोग की अप्रत्यक्ष आशंका। यद्यपि महाभियोग की प्रक्रिया कठिन और दुर्लभ है, परंतु यह “लटकती तलवार” की तरह न्यायिक स्वायत्तता पर प्रभाव डाल सकती है।
मिली-जुली सरकार और सक्रिय न्यायपालिका
विपरीत परिस्थिति में, जब केंद्र में गठबंधन की कमज़ोर सरकार होती है, जो संसद में स्थिर नहीं है, तब न्यायपालिका अधिक मुखर और साहसी हो जाती है। इस स्थिति में अदालतें भ्रष्टाचार, मानवाधिकार, नीतिगत निर्णय और संवैधानिक उल्लंघनों पर कड़े फैसले देती हैं। यह सक्रियता लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत हो सकती थी, यदि यह सैद्धांतिक रूप से निरपेक्ष होती। लेकिन जब यह सक्रियता सरकार की कमजोरी पर निर्भर हो, तो यह न्यायिक पक्षपात का संकेत बन जाती है।
अन्यायपूर्ण स्थितियाँ और लोकतांत्रिक विडंबना
यह दोहरा व्यवहार लोकतंत्र के लिए घातक है।
1. जब सरकार मज़बूत हो, तो न्यायपालिका डर जाए — यह संवैधानिक संतुलन की विफलता है।
2. जब सरकार कमज़ोर हो, तो न्यायपालिका ताक़तवर बने — यह भी न्याय की सैद्धांतिक निरपेक्षता का उल्लंघन है।
इन दोनों ही स्थितियों में लोकहित और संविधानहित की निरपेक्ष रक्षा नहीं हो पाती। बल्कि, न्यायपालिका की भूमिका सत्ता के सापेक्ष बदलती दिखाई देती है — जो कि न्याय के मूल स्वभाव के विरुद्ध है।
लोकहित का सिद्धांत: उल्टा समीकरण
दरअसल, लोकतांत्रिक लोकहित को देखते हुए इस समीकरण का उल्टा होना चाहिए।
• जब सरकार मज़बूत हो, और उसके पास व्यापक विधायी शक्ति व जनादेश हो, तो न्यायपालिका को और अधिक सजग व निडर होकर उसकी नीतियों और निर्णयों की संवैधानिक समीक्षा करनी चाहिए। ताकतवर सत्ता का अहंकार और अधिनायकवाद लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा होता है — ऐसे में न्यायपालिका की भूमिका संविधान के संरक्षक की होनी चाहिए, न कि सरकार के साक्षी की।
• वहीं, जब सरकार कमजोर हो और संसद में उसका नियंत्रण सीमित हो, तो न्यायपालिका को ज़रूरत से ज़्यादा सक्रिय हस्तक्षेप से बचना चाहिए, ताकि विधायिका और कार्यपालिका को अपनी भूमिका निभाने का पर्याप्त अवसर मिले। न्यायिक सक्रियता अगर अवसरवादिता में बदल जाए, तो यह लोकतंत्र के अन्य स्तंभों को कमजोर कर सकती है।
न्याय की स्वतंत्रता का लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व
न्यायपालिका की असली परीक्षा केवल विधिक व्याख्या में नहीं, बल्कि नैतिक साहस में है — सत्ता की ताक़त के सामने भी संविधान की रक्षा करना और सत्ता की कमजोरी का अनुचित लाभ न उठाना।
अगर भारत को एक सशक्त लोकतंत्र बनाना है, तो न्यायपालिका को सत्ता के अनुपात में नहीं, संविधान के अनुरूप काम करना होगा।
सच्चा न्याय वहीं है, जो न सत्ता से डरता है, न राजनीति से डिगता है — केवल संविधान और जनहित से प्रेरित होता है।