सातवीं सदी में अरब की ज़मीन पर जब शोषण, भूख, असमानता और गुलामी के अंधकार ने इंसानी ज़मीर को कुचल दिया था, तब एक आवाज़ उठी — मोहम्मद साहब की। वह बग़ावत की आवाज़ थे। उस दौर में जब मक्का के धनी व्यापारी वर्ग ने अपने व्यापारिक मुनाफे के लिए समाज को जातियों, नस्लों और संपत्ति के आधार पर चीर डाला था, मोहम्मद साहब ने खुलेआम ऐलान किया: सब इंसान बराबर हैं। यह क्रांति का बिग़ुल था।
उन्होंने उस व्यवस्था को ललकारा जो दौलत को कुछ हाथों में केंद्रित कर ग़रीबों को भूख और जिल्लत की गर्त में धकेल रही थी। उन्होंने संपत्ति पर पुनर्विचार कराया — ज़कात को अनिवार्य बनाकर अमीरों को मजबूर किया कि वे अपनी कमाई का हिस्सा गरीबों में बाँटें। मोहम्मद साहब ने उस व्यापार को ठुकरा दिया, जो केवल फायदे के लिए इंसानियत को कुचलता था। उन्होंने शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलंद की।
ग़ुलामी — उस समय की सबसे घिनौनी सच्चाई। इंसान इंसान का मालिक बना बैठा था। मोहम्मद साहब ने इन बेड़ियों को तोड़ना शुरू किया। बिलाल की आवाज़, जो एक गुलाम की आवाज थी, मीनार से उठी — यह उस व्यवस्था को चीरती हुई क्रांति की आवाज़ थी, जो कह रही थी: ग़ुलाम अब मौन नहीं रहेगा। वह बोलेगा, और ऊँचा बोलेगा।
उन्होंने ऐसा समाज गढ़ा जहाँ कोई खानदानी श्रेष्ठता नहीं थी, कोई जात नहीं, कोई वंश नहीं — केवल इंसानियत। कुरैश के अभिमान को उन्होंने ज़मीन पर रगड़ा और मदीना में ऐसी व्यवस्था बनाई जहाँ राज्य धर्म का गुलाम नहीं, बल्कि जनकल्याण का उपकरण बना।
उनकी नज़रों में श्रम ही असली मूल्य था। वे कहते थे — मेहनत करने वाले का पसीना सूखने से पहले उसकी मज़दूरी दे दो। दुनिया दंग रह गई यह देखकर कि यह कौन सा पैगंबर है जो अमीरों की चापलूसी नहीं करता, बल्कि मज़दूरों की मजदूरी की बात करता है? ये धर्म की भाषा नहीं — ये क्रांति की लिपि है।
धर्म उनके लिए मुक्ति का रास्ता नहीं था, बल्कि भूखे पेटों के लिए रोटी, प्यासे होंठों के लिए पानी, और बेसहारा लोगों के लिए सुरक्षा की गारंटी था। उन्होंने जो राज्य खड़ा किया, वह सामाजिक न्याय का प्रयोग था। वह कह रहे थे: अगर तुम्हारे पास दौलत है और तुम्हारा पड़ोसी भूखा है, तो तुम ईश्वर को धोखा दे रहे हो। नहीं, यह आस्था नहीं — यह आग है।
मोहम्मद साहब इतिहास के वो किरदार हैं जिन्होंने समाज के सबसे दबे-कुचले तबके की आवाज़ बनकर शोषकों की नींदें हराम कर दीं। उन्होंने धर्म को गुफा से निकाल कर सड़क पर ला खड़ा किया — वहाँ जहाँ मजदूर पसीना बहा रहा था, जहाँ अनाथ रोटी खोज रहा था, जहाँ गुलाम आज़ादी का सपना देख रहा था। यह इतिहास का वह मोड़ था जब धर्म ने पहली बार व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत की।