*मृत्यु भोज बंद होना चाहिए*।
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मृतक भोज बंद होने की मांग एक महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक मुद्दा है। यह परंपरा, जो कई समुदायों में प्रचलित है, अक्सर आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों पर भारी बोझ डालती है। ऐसे समय में, जब परिवार को भावनात्मक और मानसिक समर्थन की आवश्यकता होती है, मृतक भोज जैसी कुप्रथाएं उन्हें अनावश्यक तनाव और वित्तीय कठिनाइयों में डाल देती हैं।
इस विषय पर जागरूकता फैलाने और बदलाव लाने के लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:
1. जागरूकता अभियान: स्थानीय स्तर पर समाज में जागरूकता फैलाने के लिए बैठकें और चर्चा आयोजित करें।
2. सामूहिक निर्णय: गांवों, कस्बों, और समुदायों के बड़े-बुजुर्ग मिलकर इस परंपरा को बंद करने के लिए सामूहिक निर्णय लें।
3. सरकारी हस्तक्षेप: सरकार या प्रशासन ऐसी प्रथाओं को रोकने के लिए नियम और दिशा-निर्देश जारी कर सकती है।
4. सामाजिक समर्थन: समुदाय को इस बात पर जोर देना चाहिए कि शोक के समय में मृतक भोज की जगह भावनात्मक सहानुभूति और समर्थन अधिक महत्वपूर्ण है।
5. उदाहरण प्रस्तुत करना: जिन परिवारों ने यह परंपरा बंद की है, उनके उदाहरण समाज के अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बन सकती हैं - दिलीप सिंह पटेल
.बांदा उत्तर प्रदेश
मो.7007162190
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*मृतक भोज बंद करों*
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शोक का समय, दुख की घड़ी,
क्यों बनाएं इसे खर्च की जड़ी।
दिल है भारी, आंखें नम,
फिर भोज का ये कैसा गम?
गरीब का दिल तो पहले टूटे,
कर्ज के बोझ तले क्यों झुके?
दिखावे की इस रीति को तोड़ो,
सादगी से रिश्तों को जोड़ो।
शोक में सहानुभूति दिखाओ,
भोज का बोझ न किसी पर लाओ।
मृतक की यादों को सहेजें,
सादगी से संस्कार रचें।
भोजन से सम्मान न होता,
स्नेह से जीवन का पथ रोशन होता।
आओ मिलकर प्रण ये लें,
मृतक भोज की रस्म को रोकें।
हर घर खुशहाल बना रहे,
किसी पर कर्ज का भार न रहे।
सादगी में है शक्ति अपार,
बंद करें ये दिखावटी प्रहार।
दिलीप सिंह पटेल
बांदा उत्तर प्रदेश
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"दुखिया का दु:ख दुखिया जाने, का दुखिया की माई।
जाके पांव न फटे बेवाई, वो का जाने पीर पराई।"
अर्थ:
जो स्वयं दुखी है या जिसने पीड़ा को झेला है, वही दूसरे के दुख को समझ सकता है। जैसे, जिसकी एड़ी (पांव) कभी फटी ही नहीं, वह फटी एड़ी की पीड़ा को नहीं समझ सकता। इसी प्रकार, जो व्यक्ति कभी किसी कष्ट से नहीं गुजरा, वह दूसरों के दुख को महसूस नहीं कर सकता।
मृतक भोज के स्थान पर *शोक सभा* के महत्व को समझना पड़ेगा
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"जियत बाप से झंगमगा,
मुये बाप को भेजे गंगा।
जियत बाप से कभी पूछी न बाता,
मुये बाप को दाल और भाता।
जीते-जी ना दी कबहुँ मिष्ठान,
मरने पर करते भोज महान।
ऐसे रीति-रिवाज को त्यागो,
जीते जी प्यार और सम्मान बांटो।"
*दु:ख की घड़ी मे,काहे का सुख*।
अनर्जकों की है मौज.
यही इनका है सिध्दांत।
करते रहते हमेशा शोषण*.
नही चाहते ये रहे सुखी।
*संकल्पित हो*
नही करेंगे मृतक भोज.
... बंद करो मृतक भोज..
।।जय अर्जक। ।
दिलीप सिंह पटेल
बांदा उत्तर प्रदेश। ।
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