डॉ. आंबेडकर की चेतावनियां और भारतीय लोकतंत्र की आज की स्थिति
भारत के संविधान को लागू हुए 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं, लेकिन यह अवसर केवल उत्सव मनाने का नहीं, बल्कि आत्मावलोकन और आत्मनिरीक्षण का है। इस ऐतिहासिक पड़ाव पर यह सोचना आवश्यक है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा संविधान सभा में दी गई चेतावनियों और दृष्टिकोण का भारत ने कितना पालन किया है।
संविधान और लोकतांत्रिक चेतना का अभाव
डॉ. आंबेडकर ने संविधान को प्रस्तुत करते हुए दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया—नायक-पूजा (hero worship) और सामाजिक असमानता। उन्होंने आगाह किया था कि यदि भारतीय नागरिक अपनी स्वतंत्रता को किसी एक व्यक्ति या विचारधारा के अधीन कर देंगे, तो लोकतंत्र का पतन अनिवार्य है। उनके शब्दों में, “धर्म में भक्ति आत्मा को मोक्ष तक पहुंचा सकती है, लेकिन राजनीति में यह पतन और तानाशाही की ओर ले जाती है।”
आज की राजनीति पर नज़र डालें तो यह स्पष्ट है कि भारत में नायक-पूजा की प्रवृत्ति केवल बनी ही नहीं रही, बल्कि और अधिक बढ़ गई है। इंदिरा गांधी के समय की कांग्रेस और आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी के काम करने के तरीके में इस चेतावनी की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। दोनों ही मामलों में व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया है।
डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि संवैधानिक नैतिकता किसी समाज की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती; इसे विकसित करना पड़ता है। लेकिन आज यह देखा जा सकता है कि संवैधानिक संस्थाओं जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, और प्रशासनिक तंत्र को राजनीतिक एजेंडों के अधीन लाया जा रहा है।
राजनीतिक लोकतंत्र बनाम सामाजिक लोकतंत्र
आंबेडकर का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक असमानता को भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती बताया। उन्होंने संविधान सभा में चेताया था कि 26 जनवरी 1950 को भारतीय समाज विरोधाभासों के युग में प्रवेश करेगा—जहां राजनीति में समानता की बात होगी, लेकिन समाज और अर्थव्यवस्था में असमानता बनी रहेगी।
75 वर्षों बाद, यह विरोधाभास अब भी ज्यों का त्यों है। भारत ने एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत को तो लागू किया, लेकिन एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धांत से कोसों दूर है।
• जातीय भेदभाव: आज भी दलितों के साथ सामाजिक भेदभाव और हिंसा जारी है।
• लैंगिक असमानता: महिलाओं को परिवार और समाज में पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता।
• आर्थिक असमानता: व्यापार और पेशों में उच्च जाति के पुरुषों का वर्चस्व बना हुआ है।
डॉ. आंबेडकर के शब्दों में, “कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे?” यह प्रश्न आज भी हमारे समाज के लिए उतना ही प्रासंगिक है।
आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यकों की उपेक्षा
आंबेडकर का ध्यान मुख्यतः दलितों और महिलाओं के अधिकारों पर केंद्रित था, लेकिन आदिवासी और धार्मिक अल्पसंख्यकों की दुर्दशा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया।
• आदिवासी समुदाय: औद्योगिक और खनन परियोजनाओं के कारण आदिवासी समुदायों को उनकी जमीनों और संसाधनों से बेदखल किया गया। उनका विकास भारतीय लोकतंत्र के लाभों से वंचित रहा है।
• धार्मिक अल्पसंख्यक: विशेष रूप से मुसलमानों के साथ, हाल के वर्षों में भेदभाव और उनके अधिकारों का हनन बढ़ा है। मई 2014 के बाद धार्मिक ध्रुवीकरण ने उनकी स्थिति और खराब कर दी है।
दूसरों को दोष देने की आदत
डॉ. आंबेडकर ने कहा था, “आजादी के साथ हमने अंग्रेजों को दोष देने का बहाना खो दिया है। अगर चीजें गलत होती हैं, तो उसके दोषी हम खुद होंगे।” यह कथन आज भी उतना ही सत्य है।
• मुगलों का शासन सदियों पहले समाप्त हो गया।
• अंग्रेज 1947 में भारत छोड़कर चले गए।
• जवाहरलाल नेहरू का निधन 1964 में हुआ।
फिर भी, इन ऐतिहासिक कारकों को आज भी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह प्रवृत्ति जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने और विफलताओं को छुपाने का एक साधन बन चुकी है।
डॉ. आंबेडकर का आदर्श और आज का भारत
आज, जब हम संविधान को अपनाए जाने की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तो हमें यह पूछना चाहिए कि क्या हम आंबेडकर की चेतावनियों पर खरे उतरे हैं?
• क्या हमने संवैधानिक नैतिकता विकसित की है?
• क्या हमारा लोकतंत्र केवल दिखावा मात्र है?
• क्या हम सामाजिक और आर्थिक असमानता को मिटा पाए हैं?
यदि इन सवालों का उत्तर “नहीं” है, तो यह समय आत्मचिंतन का है। डॉ. आंबेडकर ने केवल एक संविधान नहीं दिया, बल्कि एक चेतावनी भी दी थी—यदि हमने लोकतंत्र को सही मायने में अपनाया नहीं, तो यह कमजोर हो जाएगा।
निष्कर्ष
डॉ. आंबेडकर का सपना एक ऐसा भारत था, जहां सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक समानता हो। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम नायक-पूजा, भेदभाव, और असमानता को खत्म करें। संविधान केवल एक दस्तावेज़ नहीं है; यह एक जीता-जागता मार्गदर्शन है। आंबेडकर की चेतावनियों को ध्यान में रखते हुए, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत केवल एक लोकतंत्र नहीं, बल्कि एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज भी बने।
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