*ग्रोक से सवाल और जवाब*
ग्रोक जी, संविधान निर्माताओं ने, संविधान बनाते समय भारतीय जजों को दूसरा भगवान समझते हुए, उन्होंने उस समय सोचा कि, ए गलती कभी कर ही नहीं सकते, इतना पावर दिया कि, उनके जजमेंट के खिलाफ बोलने तक को कोर्ट की अवमानना माना । आज बड़ा मन दुखी हैं। ऐसा क्यों, कारण और आप की समीक्षा चाहता हूं। धन्यवाद।
*जवाब लाजवाब*
आपका प्रश्न बहुत गहरा और विचारणीय है। आपने भारतीय संविधान निर्माताओं के उस दृष्टिकोण की ओर इशारा किया है, जिसमें उन्होंने न्यायाधीशों को अत्यधिक सम्मान और शक्ति प्रदान की थी, यह मानते हुए कि वे अचूक होंगे। साथ ही, आप आज के संदर्भ में इस व्यवस्था से उत्पन्न कुछ असंतोष या दुख की बात कर रहे हैं। मैं इसे यथासंभव तटस्थ और विश्लेषणात्मक रूप से समझाने की कोशिश करूंगा।
*कारण , क्यों संविधान निर्माताओं ने जजों को इतना अधिकार दिया:*
*न्यायपालिका की स्वतंत्रता:*
संविधान निर्माताओं, जैसे डॉ. बी.आर. आंबेडकर, ने यह सुनिश्चित करना चाहा कि न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्र रहे। ब्रिटिश शासन के दौरान देखा गया था कि शक्ति का दुरुपयोग कैसे होता है। इसलिए, जजों को "दूसरे भगवान" जैसा दर्जा देकर उन्हें निर्भीक और निष्पक्ष निर्णय लेने की शक्ति दी गई।
*लोकतंत्र की रक्षा:*
संविधान को सर्वोच्च रखने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक मजबूत न्यायिक व्यवस्था जरूरी थी। इसके लिए जजों को व्यापक अधिकार दिए गए, जैसे संविधान की व्याख्या करने और कानूनों को रद्द करने की शक्ति (न्यायिक समीक्षा)।
*नैतिक विश्वास:*
उस समय यह धारणा थी कि जो लोग न्यायाधीश बनेंगे, वे उच्च नैतिकता और बुद्धिमत्ता के धनी होंगे। कोर्ट की अवमानना (Contempt of Court) का प्रावधान इसलिए रखा गया ताकि उनकी गरिमा और निर्णयों की पवित्रता बनी रहे।
*आज दुख क्यों?आपके मन के दुख का कारण संभवतः*
यह हो सकता है कि समय के साथ इस व्यवस्था में कुछ कमियां या दुरुपयोग सामने आए हैं।
*कुछ संभावित कारण:*
*न्यायिक अतिवाद (Judicial Overreach):*
कई बार ऐसा लगता है कि न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है, जो संतुलन को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, नीतिगत मामलों में जजों के फैसले विवादास्पद हो सकते हैं।
*जवाबदेही का अभाव:*
जजों को दी गई असीम शक्ति के साथ उनकी जवाबदेही तय करने का कोई स्पष्ट तंत्र नहीं है। अगर कोई गलत फैसला होता है, तो उसे चुनौती देना मुश्किल होता है।
*कोर्ट की अवमानना का दुरुपयोग:*
यह प्रावधान कभी-कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता है। लोगों को लगता है कि वे न्यायिक फैसलों की आलोचना भी नहीं कर सकते, भले ही वह रचनात्मक हो।
*न्याय में देरी:*
भारत में लाखों मामले लंबित हैं। जिस "दूसरे भगवान" से त्वरित और निष्पक्ष न्याय की उम्मीद थी, वह कई बार समय पर न्याय देने में असमर्थ दिखता है।
*मेरी समीक्षा:*
न्यायपालिका को मजबूत बनाना संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता थी, और इसने कई बार लोकतंत्र को बचाया भी है—जैसे आपातकाल (1975-77) के बाद मौलिक अधिकारों की बहाली में। लेकिन, समय के साथ हर व्यवस्था की समीक्षा जरूरी होती है। आज जरूरत है कि:न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता बढ़े (जैसे कॉलेजियम सिस्टम में सुधार)।जवाबदेही का कोई संतुलित तरीका हो, बिना स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाए।कोर्ट की अवमानना कानून को आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप ढाला जाए।आपके दुख का कारण यह भी हो सकता है कि जो आदर्श संविधान निर्माताओं ने सोचे थे, वह पूरी तरह वास्तविकता में परिलक्षित नहीं हो रहा। यह एक स्वाभाविक भावना है, क्योंकि कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं होती—वह समय और समाज के साथ विकसित होती है। आपकी भावनाएं इस बदलाव की मांग को दर्शाती हैं, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी भी है।
आपके विचार और क्या हैं? अगर कोई खास पहलू पर और चर्चा चाहें, तो जरूर बताएं। धन्यवाद!
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