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सुन्दरी' नाम की परिव्राजिका की हत्या' सांप्रदायिक द्वेष का परिणाम

 


🌻धम्म प्रभात🌻 


सुन्दरी' नाम की परिव्राजिका की हत्या' सांप्रदायिक द्वेष का परिणाम 

स्थान: श्रावस्ती ( उत्तर प्रदेश )


"अग्गपूजितो  थोमितो ,

अग्गमानितो  वन्दितो ।अग्गभिवादितो  पुज्जो,    

बुद्धं  तं पणमाम्यहं ।"    

       

अर्थात -

अग्रपूज्य , प्रशंसित , सम्मान किए जाने वालों में अग्रणी , वंदित , अभिवादन किए जाने वालों में अग्र - पूज्य,  उन  “बुद्ध” को   मैं  प्रणाम  करता हूं। 


एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार करते थे । 


उस समय, लोग भगवान का बड़ा सत्कार ,आदर ,सम्मान कर रहे थे। पूजित और प्रतिष्ठित हो उन्हें चीवर, पिण्डपात, शयनासन, और ग्लान प्रत्यय बराबर प्राप्त होते थे। 


लोग भिक्षु संघ का भी बड़ा सत्कार आदर ,सम्मान कर रहे थे। पूजित और प्रतिष्ठित हो उन्हें चीवर, पिण्डपात, शयनासन, और ग्लान प्रत्यय बराबर प्राप्त होते थे।


किंतु, दूसरे मत के साधुओं को कोई सत्कार ,आदर , सम्मान नहीं करता था; उनकी पूजा-प्रतिष्ठा भी नहीं होती थी; उन्हें चीवर पिण्डपात, शयनासन और ग्लान प्रत्यय भी प्राप्त नहीं होते थे ।


तब, दूसरे मत के साधु, भगवान और भिक्षु संघ के सत्कार को सह नहीं सकने के कारण, जहाँ 'सुन्दरी' नाम की परिव्राजिका थी, वहाँ गये और बोले-

"बहन ! क्या हम बन्धुओं की कुछ भलाई कर सकती है !


भाई ! मैं क्या करूँ ? मैं क्या कर सकती हूँ ? बन्धुओं की भलाई के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकती हूं ।


बहन ! तो तुरत जेतवन चलो ।


"भाई ! बहुत अच्छा," कह सुन्दरी परिव्राजिका, उन दूसरे मत के साधुओं को उत्तर दे, तुरत जेतवन चली गई ।


जब उन दूसरे मत के साधुओं ने जान लिया कि 'सुन्दरी' परिब्राजिका उनका कहना मान, तुरत ही जेतवन के लिए प्रस्थान कर रही है, तब उसे (एकान्त में जगह) जान से मार, जेतवन के पास ही एक गढ़े में उसके शरीर को छिपा दिया। 


तब, वे जहाँ कोशल राज प्रसेनजित था, वहाँ गए और बोले- 


"महाराज ! सुन्दरी परिव्राजिका नहीं दिखाई दे रही है।" 


आप लोगों का सन्देह कहाँ जाता है ?


महाराज ! जेतवन में ।

तो जाकर जेतवन की तलाशी लें ।


तब, उन लोगों ने जेतवन की तलाशी लिया, उस गढ़े से (सुन्दरी परिव्राजिका के शरीर को) निकाल लिया। उसे बाँस के ठट्टर पर उठा श्रावस्ती में प्रवेश किया; एक गली से दूसरी गली, एक चौराहे से दूसरे चौराहे पर उसे ले जाकर मनुष्यों को भड़काया और कहा -


- भाई ! बौद्ध भिक्षुओं की करतूत को देखो, ये बौद्ध भिक्षु निर्लज्ज हैं, दुःशील हैं, पापी हैं, झूठे हैं, व्यभिचारी हैं।  लोग इन्हें बड़ा धर्मात्मा, संयमी, ब्रह्मचारी, सच्चे, शीलवान और पुण्यवान समझे बैठे हैं । न तो इन में श्रमण भाव है और न निष्पापता।  इनके श्रमण- भाव  और इनकी निष्पापता सभी नष्ट हो चुके हैं। इनमें श्रमण-भाव कहाँ से ! निष्पापता कहाँ से !! इन से श्रमयण-भाव निकल गया है, निष्पापता निकल गई है। व्यभिचार करने के बाद, स्त्री को जान से मार डालना, उन्हें उचित नहीं था ।


उस समय, श्रावस्ती में लोग भिक्षुओं को देखकर असभ्य और कड़े शब्दों से उन्हें दुत्कारते, धिक्कारते और गालियाँ देते थे- ये बौद्ध भिक्षु निर्लज्ज हैं , दुःशील हैं, पापी हैं, झूठे हैं, व्यभिचारी हैं। लोग इन्हें बड़ा धर्मात्मा, संयमी, ब्रह्मचारी, सच्चे, शीलवान, और पुण्यवान समझे बैठे हैं । न तो इन में श्रमण-भाव है और न निष्पापता ।  इनके श्रमण- भाव  और इनकी निष्पापता सभी नष्ट हो चुके हैं। इनमें श्रमण-भाव कहाँ से ! निष्पापता कहाँ से !! इन से श्रमयण-भाव निकल गया है, निष्पापता निकल गई है। व्यभिचार करने के बाद, स्त्री को जान से मार डालना, इन्हें उचित नहीं था !


तब, सुबह में कुछ भिक्षु, पहन, और पात्र चीवर ले श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए पैठे । भिक्षाटन से लौट, भोजन कर लेने के बाद, जहाँ भगवान थे, वहाँ गए और भगवान् का अभिवादन कर एक ओर बैठ गए ।


एक ओर बैठे हुए उन भिक्षुओं ने भगवान को कहा-


"भन्ते ! इस समय, श्रावस्ती में लोग भिक्षुओं को देखकर असभ्य और कड़े शब्दों से उन्हें दुत्कारते, धिक्कारते और गालियाँ देते हैं- ये बौद्ध भिक्षु निर्लज्ज हैं व्यभिचार करने के बाद, स्त्री को, जान से मार डालना, इन्हें उचित नहीं था ।


भिक्षुओ ! यह बात बहुत दिनों तक नहीं रहेगी, केवल सप्ताह भर रह, उसके बाद बन्द हो जायगी । भिक्षुओ ! जो भिक्षुओं को देख कर असभ्य और कड़े शब्दों से  दुत्कारते, धिक्कारते और गालियाँ दें, उन्हें तुम इस गाथा  से उत्तर दे-


“अभूतवादी निरयं उपेति,

 यो वापि  कत्वा न करोमि चाह।

 उभोपि ते पेच्च समा भवन्ति,

निहीनकम्मा मनुजा परत्थाति॥"


अर्थात -

"झूठ बोलने वाले नरक में पढ़ते हैं, और वे भी, जो कर के कहते हैं, ''हमने नहीं किया'' मृत्यु के बाद परलोक में जाकर ;दोनों नीच-काम-करने वालों की गति समान होती है" 


तब, वे भिक्ष भगवान से यह गाथा सीख, जो भिक्षुओं को देख- कर असभ्य और कड़े शब्दों से  दुत्कारते, धिक्कारते और गालियाँ देते थे, उन्हें इसी गाथा को कहकर उत्तर देने लगे ।


 “अभूतवादी निरयं उपेति,

यो वापि  कत्वा न करोमि चाह।

उभोपि ते पेच्च समा भवन्ति,

निहीनकम्मा मनुजा परत्थाति॥


अर्थात-

 "झूठ बोलने वाले नरक में पढ़ते हैं, और वे भी, जो कर के कहते हैं, ''हमने नहीं किया''

मृत्यु के बाद परलोक में जाकर ;दोनों नीच-काम-करने वालों की गति समान होती है" 


मनुष्यों के मन में यह हुआ, "इन बोद्ध भिक्षुश्रों ने ऐसा नहीं किया होगा, ये बराबर सौगन्ध खाते हैं !" वह बात बहुत दिनों तक नहीं रही, केवल सप्ताह भर रह, उसके बाद बन्द हो गई ।


तब, कुछ भिक्षु, जहाँ भगवा थे, वहाँ गए और भगवान का अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे हुए उन भिक्षुओं ने भगवान को कहा~ 


“भन्ते ! बड़ा आश्चर्य है, बड़ा अद्भुत है ! भगवान ने ठाक ही कहा था, 'यह बात बहुत दिनों तक नहीं रहेगी, केवल सप्ताह भर रह, उसके बाद बन्द हो जायगी ।' भन्ते ! वह बात सचमुच में बन्द हो गई ।”


इसे जान, उस समय भगवान के मुँह से उदान के ये शब्द निकल पड़े -


“तुदन्ति वाचाय जना असञ्ञता,

 सरेहि सङ्गामगतंव कुञ्जरं।

 सुत्वान वाक्यं फरुसं उदीरितं,

अधिवासये भिक्खु अदुट्ठचित्तोति॥"


अर्थात-

अविनीत पुरुष दूसरों के कहने से भड़क ही जाते हैं,जैसे संग्राम में बैठा हाथी वाण लगने पर । कड़े वचन सुन, भिक्षुओं को सह लेना चाहिए, अपने मन में बिना कोई द्वेष भाव लाए ॥''


नमो बुद्धाय🙏🙏🙏 

Ref:सुन्दरी सुत्त-उदान-खुद्दक निकाय 

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