*~~~मजबूर दरिंदों को कर दो~~~*
*संकेत समझते नहीं लोग, हम कैसे उन्हें पुकारेंगे ?*
*जब एक साथ होगी जनता, तो वे किस किस को मारेंगे?*
श्री लंका का उत्सव देखा, जब आग लगी थी पानी में।
म्यांमार बांगला देश अभी, हैं झुलस रहे नादानी में।
*भड़काने वाले लगे हुये, हिंदू खतरे में पड़े हुये।*
*मणिपुर में आग लगी थी जब, तब ये सब क्यों न खड़े हुये।*
ये गिरी मानसिकता ले कर, झूठा प्रचार करने वाले।
कितने इनके घरवाले थे, पुलवामा में मरने वाले।
*ये मानवता के दुश्मन हैं, घपलों को रोज दबाते हैं।*
*बातों बातों में ही देखो, कितनी दौलत खा जाते हैं ?*
गठजोड़ समझ लो इन सबका, कब्जा है सभी ठिकानों पर।
बिखरे बिखरे हैं नौजवान, पानी डाला अरमानों पर।
*आँधी पानी सब देख लिया, अब समझाने का काम नहीं।*
*तब से अब तक सबने जाना, ये भारत इनके नाम नहीं।*
बेरोजगार क्यों बैठे हो, छाती में उठता दर्द नहीं।
दो कदम नहीं चल पाओगे, मौसम इतना भी सर्द नहीं।
*ये वक्त संभालेगा सबको, उठ कर अपनी हुंकार भरो।*
*मजबूर दरिंदों को कर दो, आपस में इतना प्यार भरो।*
संकेत नहीं करने होंगे, जब जान जान में डालोगे।
मौसम चाहे जैसा भी हो, मन की हर ख्वाहिश पा लोगे।
*थाली ही रहे पीटते सब, कब्जा कर लिया बहारों पर।*
*बरसेंगे फूल अभी काफी, चलना होगा अंगारों पर।*
हर बार यही रटते रहते, इस बार माफ कर देते हैं।
वे आफत में अवसर पा कर, हर माल साफ कर देते हैं।
*सोना चाँदी सब साफ हुआ, बस घंटा तुम्हें बजाना है।*
*मरते दम तक बस चिल्लाओ, किसके घर गया खजाना है ?*
गैय्या की पूँछ पकड़नी है, वे तुमको उससे तारेंगे।
जो उनकी नाव चढ़े हैं अब, मनचाही जगह उतारेंगे।
*संकेत समझते नहीं लोग, हम कैसे उन्हें पुकारेंगे ?*
*जब एक साथ होगी जनता, तो वे किस किस को मारेंगे?*
*मदन लाल अनंग*
द्वारा : मध्यम मार्ग समन्वय समिति।
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मो. न. 9450155040
यह कविता समाज की विद्रूपताओं, राजनीतिक स्वार्थों और जनता की पीड़ा को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करती है। कवि ने तीखे शब्दों के माध्यम से सत्ता के दमनकारी रवैये, सांप्रदायिक विभाजन और जनसामान्य की लाचारी को उजागर किया है।
कविता की शुरुआत इस सवाल से होती है कि जब सत्ता में बैठे लोग संकेतों को अनदेखा कर देते हैं, तो जनता किस प्रकार अपनी आवाज़ उठाएगी। कवि का यह प्रश्न केवल व्यवस्था पर नहीं, बल्कि समाज की निष्क्रियता पर भी प्रहार करता है। जनता की एकता को कवि ने शक्ति का प्रतीक बताया है, जिसका डर सत्ता को सताता है — “जब एक साथ होगी जनता, तो वे किस किस को मारेंगे?”
श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश जैसे देशों के उदाहरण देकर कवि यह इंगित करते हैं कि जब जनता का धैर्य जवाब दे देता है, तब सत्ता के विरुद्ध विद्रोह अपरिहार्य हो जाता है। वहीं, मणिपुर जैसी घटनाओं का उल्लेख कर सत्ता की उदासीनता पर भी सवाल उठाए गए हैं। जब देश में मानवता को कुचला जा रहा था, तब वे लोग कहाँ थे जो अब धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर भड़काऊ बयानबाज़ी कर रहे हैं?
कविता में पुलवामा हमले का उल्लेख कर देशभक्ति की राजनीति पर कटाक्ष किया गया है। सवाल उठाया गया है कि जब देश के जवान मारे गए, तब असली दोषियों पर कार्रवाई करने की बजाय राजनीतिक रोटियां क्यों सेंकी गईं? यह पंक्तियाँ सत्ता के पाखंड को उजागर करती हैं —
“कितने इनके घरवाले थे, पुलवामा में मरने वाले।”
सत्ता के भ्रष्टाचार और आर्थिक घोटालों को भी कवि ने आड़े हाथों लिया है। वे बताते हैं कि किस तरह नेताओं की मिलीभगत से देश की संपत्ति लूटी जा रही है और आमजन के सपनों को कुचला जा रहा है।
लेकिन कविता केवल आलोचना तक सीमित नहीं है। कवि जनजागृति का आह्वान भी करते हैं। वे कहते हैं कि बेरोजगारी और अन्याय के खिलाफ खड़ा होना ज़रूरी है। ठंडे मौसम की उपमा देकर कवि जनता की निष्क्रियता पर व्यंग्य करते हैं —
“बेरोजगार क्यों बैठे हो, छाती में उठता दर्द नहीं।
दो कदम नहीं चल पाओगे, मौसम इतना भी सर्द नहीं।”
कवि का संदेश स्पष्ट है — जब तक जनता एकजुट होकर सत्ता के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाएगी, तब तक शोषण और अन्याय का चक्र जारी रहेगा। वे प्रेम और भाईचारे की भावना को भी सशक्त हथियार मानते हैं, जो नफरत की राजनीति को पराजित कर सकती है —
“मजबूर दरिंदों को कर दो, आपस में इतना प्यार भरो।”
अंत में, कविता सत्ता के छल-कपट, धार्मिक पाखंड और जनता की दुर्दशा को सामने लाते हुए, क्रांति और बदलाव की आवश्यकता पर जोर देती है। यह एक पुकार है, एक चेतावनी है और एक उम्मीद है कि जब जनता एकजुट होगी, तो सत्ता की निरंकुशता को चुनौती मिलेगी।
यह कविता न केवल व्यंग्य है, बल्कि एक प्रेरणा है — अपने अधिकारों के लिए खड़े होने, सत्ता की असलियत को पहचानने और अन्याय के विरुद्ध संगठित होने की प्रेरणा।
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