बीटीएमसी एक्ट 1949 खत्म किए जाने कौन सा मार्ग सार्थक होगाॽ क्या संविधान के अनुच्छेद 25,2बी में संशोधन के लिए लड़ाई लड़ना पड़ेगाॽ
बीटीएमसी एक्ट 1949 खत्म किए जाने कौन सा मार्ग सार्थक होगाॽ क्या संविधान के अनुच्छेद 25,2बी में संशोधन के लिए लड़ाई लड़ना पड़ेगाॽ विजय बौद्ध संपादक दि बुद्धिस्ट टाइम्स भोपाल मध्य प्रदेश, ,,,,,,,,,,,,,,स्वतंत्र भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हो गया था। और 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया था। संविधान के अनुच्छेद 13 में स्पष्ट उल्लेख किया गया है। कि भारत का संविधान निर्माण के पूर्व जितने भी देश में कानून है। थे, चाहे मनुस्मृति हो या अन्य स्मृतियां सभी निष्प्रभावी माने जावे। बीटीएमसी एक्ट 1949 में बना है। इसलिए संविधान के अनुच्छेद आर्टिकल 13 के तहत अपने आप अस्तित्वहीन हो जाता है। यह कानूनी प्रक्रिया है। बीटीएमसी एक्ट 1949 खत्म किए जाने की लड़ाई से अधिक महत्वपूर्ण और जरूरी लड़ाई है, संविधान के अनुच्छेद 25 2b में संशोधन किया जाना। क्योंकि इस अनुच्छेद के तहत सिख और बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के अधीन रखा गया है। बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म में मान्यता दी गई है। बौद्ध धर्म स्वतंत्र धर्म नहीं है। इसी कारण बौद्धों का कोई पर्सनल लॉ मैरिज एक्ट नहीं है। जबकि हिंदू मैरिज एक्ट है। मुस्लिम मैरिज एक्ट है। और सिख धर्म हिंदू धर्म के अधीन होने के बावजूद सिखों ने भी अपना आनंद मैरिज एक्ट बना लिया है। जबकि बौद्धों का कोई पर्सनल लॉ मैरिज एक्ट नहीं है। कहीं संविधान के अनुच्छेद 25 2b के अंतर्गत बौद्ध हिंदू धर्म के अधीन है। इस बात को लेकर बीटीएमसी एक्ट 1949 तो नहीं बनाया गया है ॽ इस एक्ट में बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार टेंपल मैनेजमेंट कमेटी में हिंदुओं को शामिल किया जा सकता है ॽ क्योंकि बौद्ध धर्म स्वतंत्र धर्म नहीं है। इसलिएॽ हिंदू धर्म के अधीन है इसलिएॽ बीटीएमसी एक्ट 1949 को रद्द किए जाने की लड़ाई लड़ने से अधिक संविधान के अनुच्छेद 25 2b में संशोधन किए जाने की लड़ाई लड़ी जाना मैं अत्यंत आवश्यक समझता हूं। यदि बीटीएमसी एक्ट रद्द हो भी गया। बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार मैनेजमेंट कमेटी से ब्राह्मणों को हटा भी दिया गया। और बौद्धों को सौंपा भी गया। परंतु बौद्धों का कोई पर्सनल लॉ मैरिज एक्ट नहीं है।बौद्धों की स्वतंत्र पहचान मिल जाएगी ॽ नहीं, इसलिए बीटीएमसी एक्ट 1949 रद्द करने की लड़ाई लड़ने के साथ संविधान के अनुच्छेद 25 2b में संशोधन की लड़ाई लड़ना भी अत्यंत आवश्यक है। जैन सिख हिंदू धर्म के अधीन है। फिर भी उनके मैनेजमेंट कमेटी में कोई अन्य धर्म के व्यक्ति शामिल नहीं है। इस आधार पर बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार मैनेजमेंट कमेटी में भी किसी अन्य धर्म के व्यक्ति को शामिल नहीं किया जा सकता है। यह कानूनी लड़ाई है। भारत सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग बनाया है। इस आयोग में मुस्लिम सिख इसाई जैन फारसी बौद्धों को शामिल कर उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित किया है। अब स्वयंभू बौद्धों से पूछा जाए कि आप धार्मिक अल्पसंख्यक हैॽ या महार चमार ,अनुसूचित जाति के हैॽ तो पता चल जाएगा कि, बौद्ध स्वयं को अल्पसंख्यक नहीं, बल्कि महार, चमार जाति के बताएंगे। आज भी स्वयंभू बौद्ध, अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र बनवाने संघर्षरत है। जबकि बौद्ध धर्म में कोई जाति व्यवस्था नहीं है। देश का संविधान डॉ बाबासाहेब अंबेडकर ने ही बनाया था।
परंतु जब वे संविधान बना रहे थे। उस समय तक में बौद्ध नहीं, हिंदू ही थे। शायद यही स्थिति के कारण नहीं चाहते हुए भी डॉक्टर अंबेडकर को बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के अधीन रखना पड़ा होगा। देश का संविधान 26 नवंबर 1949 में बन गया था। और 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया था। डॉ अंबेडकर ने संविधान निर्माण के 6 वर्षों बाद 14 अक्टूबर 1956 को हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। इसी कारण शायद डॉक्टर अंबेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 252b में बौद्ध धर्म को हिंदू धर्म के अधीन रखा होगा। यही कारण बीटीएमसी एक्ट 1949 को जो बना है। उसमें हिंदू ब्राह्मण को शामिल किया गया हैॽ इसलिए अनुच्छेद 25 2b में संशोधन की लड़ाई बीटीएमसी एक्ट रद्द किए जाने से अधिक महत्वपूर्ण एवं जरूरी है। क्योंकि संविधान लागू होने के बाद भी हम यानी कि बौद्ध धर्म आज भी हिंदू धर्म के अधीन है। बौद्धो का कोई पर्सनल लॉ मैरिज एक्ट नहीं है। बौद्धों की कोई स्वतंत्र पहचान नहीं है। जब हमारा धर्म ही हिंदू धर्म के अधीन है। तो हम कैसे बौद्ध विरासतों, बुद्ध विहारों पर अपना आधिपत्य जमा सकते हैं ॽ इसलिए मैंने लिखा था। लिखा हूं। कि बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार मुक्ति आंदोलन लड़ाई कानूनी नहीं बल्कि भावनात्मक अधिक समझ में आ रही है। हमें कानूनी लड़ाई लड़नी होगी। सुलेखा ताई कुंभारे की तरह आस्था को आधार मानकर नहीं, अयोध्या विवादित ढांचे का जो मामला था, पुरातत्व विभाग, सरकार एवं न्यायालय एवं देश एवं दुनिया को मालूम था। कि अयोध्या राम जन्म भूमि नहीं, बल्कि साकेत बौद्ध विरासत है। इस बौद्ध विरासत को खत्म किए जाने ब्राह्मण पुष्पमित्र शुंग ने बिना युद्ध के साकेत बौद्ध विरासत को अयोध्या घोषित कर दिया था। और बौद्ध सम्राट बृहस्थ की हत्या कर राज पाठ छीन लिया था। तथा लाखों बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम किया था। यह इतिहास है। अयोध्या को राम जन्मभूमि प्रस्तुत किए जाने और उस जगह राम का मंदिर बनाए जाने का निर्णय फैसला दिए जाने के लिए मनुवादी विचारधारा के सत्ताधारी लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के जजों पर दबाव बनाया था। और प्रलोभन दिया था। इसलिए हिंदुओं की आस्था को मानकर बिना साक्ष्य प्रमाण के अयोध्या में राम मंदिर निर्माण किए जाने का सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक फैसला दिया था। जिसकी देश एवं दुनियां में निंदा की गई थी। क्या सुलेखा ताई कुंभारे की याचिका आस्था के आधार पर सुप्रीम कोर्ट बौद्धों के हित में फैसला दे देगा ॽ नहीं, सुलेखा ताई कुंभारे द्वारा आस्था के आधार पर जो सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। यह मनुवादी विचारधारा के लोगों का सुनियोजित षड्यंत्र प्रतीत होता है। क्योंकि सुलेखा ताई कुंभारे वर्षों से मनुवादियों की गोद में बैठी हुई है। और मनुवादियों सत्ता पक्ष ने उन्हें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की सदस्य भी बनाया था। बौद्धो का प्रतिनिधित्व दिया था। तब तो सुलेखा ताई कुंभारे ने बौद्धों के हित संरक्षण में कोई आवाज नहीं उठाई। और जब वे सत्तादारी पक्ष के साथ जुड़ी है। तो सरकार से क्यों नहीं कहती, कि बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार बौद्धों को सौंप दिया जाए। वह नहीं कह सकती, और वह सुप्रीम कोर्ट अपनी मर्जी से नहीं उन्हें के इशारे पर गई है। इसलिए उन्होंने आस्था के आधार पर याचिका दायर की है। जिसका कोई मतलब आधार नहीं है। सवाल,, बौद्ध धर्म गुरु भदंत नागार्जुन सुरेई ससाई इन्होंने 35 वर्ष पूर्व बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार मुक्ति आंदोलन छेड़ा था। आंदोलन के चलते इन्हें अटल बिहारी बाजपेई बीजेपी की सरकार में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में जाने की क्या जरूरत पड़ गई थी ॽ वे क्यों गए थे ॽ आयोग में गए थे। तो बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार ब्राह्मणों से मुक्त क्यों नहीं करवाए ॽ बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार मुक्ति आंदोलन को खत्म किए जाने की मंशा से ही भारतीय जनता पार्टी अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने सूरई ससाई नागार्जुन को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य नियुक्त किया था। सुरई ससाई ने भी अखिल भारतीय बौद्ध मंच के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में याचिका आधार की थी। उसे वापस ले लिया था। फिर याचिका दायर किया है। वह 2012 से विचाराधीन है। डॉ आंबेडकर द्वारा संस्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का स्वयं राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं भारतीय बौद्ध महासभा के सलाहकार रहे, आरएसएस बीजेपी नरेंद्र मोदी की सरकार में सामाजिक न्याय मंत्री रामदास आठवले, बोधगया महाबोधी बुद्ध विहार ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराकर बौद्धों को सौंपे जाने केंद्र सरकार एवं बिहार सरकार से क्यों नहीं कहते ॽ और यदि कहां है, और उनकी बात को नहीं माना जा रहा है। तो मंत्री पद से बौद्धों के हित संरक्षण में इस्तीफा क्यों नहीं देते ॽ इसका मतलब है। कि इस आंदोलन को उनका समर्थन एक मात्र दिखावा या छलावा है। यह लड़ाई जिस तरह से आकाश लामा भदंत प्रज्ञा शील आसान समझ रहे हैं।उतनी आसान नहीं है। क्योंकि इतिहास के पन्ने कंगाल कर देख लो,,, इसलिए इस लड़ाई को अंजाम देने के लिए देश के बौद्ध विद्वान, कानूनविद ,बौद्ध चिंतक एवं संघर्षशील बुद्धिजीवीयो की एक कमेटी बनाई जाए। दुनियां के महानतम विद्वान, महामानव युग प्रवर्तक, क्रांति सूर्य, भारतीय संविधान के निर्माता, डॉ बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था ।भारत का इतिहास और कुछ नहीं ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच का संघर्ष मात्र है। आखिर बौद्ध विरासत, बुद्ध विहारों पर ही हिंदू ब्राह्मणों ने कब्जा क्यों कियाॽ हमें अपनी बौद्ध विरासत बुद्ध विहारों और बौद्ध धम्म को बचाने के लिए क्या करना चाहिएॽ इस पर एक चिंतन बैठक समूचे देश के बुद्धिजीवियों की होना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि जिन हिंदू ब्राह्मण ने मनुवादी विचारधारा के सत्ताधारी लोगों ने, बौद्ध विरासत बौद्ध विहारों पर कब्जा किया है। उन्हीं के गोद में अधिकांश तथाकथित बौद्ध मठाधीश, बौद्ध संगठनों के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नेता ,बौद्ध भिक्षु, तथाकथित अंबेडकरवादी नेता, बैठे हुए हैं। और समूचे देश में भारतीय जनता पार्टी सत्ताधारी पक्ष के नेता मंत्री मुख्यमंत्री को मुख्य अतिथि आमंत्रित कर डॉ बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती बड़े ही धूमधाम से मना रहे हैं।और ऐसा करके अपना स्वार्थ सिद्ध कर अपने समाज के साथ गद्दारी कर समाज को धोखा दे रहे हैं। यही कारण है। कि बौद्धों की विरासत बुद्ध विहारों पर उनका हजारों वर्षों से कब्जा बरकरार है।, और अब डॉक्टर अंबेडकर द्वारा निर्मित भारतीय संविधान और लोकतंत्र खतरे में आ गया है। इसलिए देश का संविधान लोकतंत्र बचाने, अपनी बौद्ध विरासत और बुद्ध विहारों को बचाने, बौद्ध धम्म को बचाने के लिए देश के अंबेडकरवादी बौद्धों को एक मंच पर लाकर संगठित संघर्ष करने की आवश्यकता है। अन्यथा कुछ हासिल नहीं होगा। गुलामी के जंजीरों में जकड़ जाएंगे।।।। विजय बौद्ध, राष्ट्रीय महासचिव विश्व बौद्ध संघ नई दिल्ली, पूर्व राष्ट्रीय सचिव बौद्ध संगठनों की राष्ट्रीय समन्वय समिति बौद्ध धम्म संसद बोधगया,
टिप्पणियाँ