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आतंकवादी धर्म से नहीं, सोच से होता है।

 




एक कड़वी सच्चाई जो कोई सुनना नहीं चाहता…

पहलगाम में जब आतंकी हमला हुआ —

पर्यटक डर रहे थे, गोलियाँ चल रही थीं, खून बह रहा था, लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे…

और तब,

जिन्होंने सबसे पहले जान की परवाह किए बिना बचाने की कोशिश की — वे मुसलमान थे।

जिन्होंने अपनी पीठ पर घायल हिंदुओं को उठाकर सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया — वे मुसलमान थे।

जिन्होंने आतंकियों से घिरते हुए खुद को ढाल बनाया — वे मुसलमान थे।

जिन्होंने हॉस्पिटल में इलाज किया, एम्बुलेंस चलाई, खून दिया — वे मुसलमान थे।

और जिनकी जान चली गई… हिंदुओं की जान बचाने के प्रयास में — वे भी मुसलमान थे।

लेकिन…

जो सुरक्षा देने का वादा कर सत्ता में बैठे हैं — वे हिंदू थे।

जिन्होंने बॉर्डर को सुरक्षित रखने में विफलता दिखाई — वे हिंदू थे।

जिन्होंने PM का दौरा रद्द किया, लेकिन आम जनता को बिना चेतावनी के छोड़ दिया — वे हिंदू थे।

जिन्होंने सुरक्षा बलों को कमजोर किया, इनपुट्स को नज़रअंदाज़ किया — वे हिंदू थे।

जो मीडिया में चिल्ला रहे थे ‘कश्मीर अब शांत है’ — वे हिंदू थे।

और सबसे शर्मनाक —

जब इंसानियत ज़मीन पर लड़ रही थी,

तब सोशल मीडिया पर हिंदू ट्रोल्स “सारे मुसलमान आतंकवादी हैं” लिख रहे  है।

पूछो खुद से…

क्या आतंकवाद से लड़ रहे हो या मुसलमानों से?

क्या देश के नागरिक की सुरक्षा ज़्यादा ज़रूरी है या एक मजहब के नाम पर सत्ता चलाना?

क्या वाकई आतंकवादी से ज़्यादा डर तुम्हें एक इंसान के नाम और पहचान से है?

विडंबना ये नहीं कि हमला हुआ,

विडंबना ये है कि जिन्हें 'देशद्रोही' कहा जाता है,

उन्होंने जान देकर देशवासियों की जान बचाई।                                 

आतंकवादी कौन? पहचानो।

वह जो जोड़ता है — या वह जो तोड़ता है?

वह जो मदद करता है — या वह जो नफ़रत फैलाता है?

वह जो जान बचाता है — या वह जो हिंसा करता है?

वह जो जख्मों पर मरहम लगाता है — या वह जो ज़ख्म देता है?

सोचो...

आतंकवादी धर्म से नहीं, सोच से होता है।

इंसानियत बचाने वाला कभी आतंकवादी नहीं हो सकता।

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