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धार्मिक आतंकवाद ही नहीं, जातीय आतंकवाद भी है इस देश की सच्चाई

 






धार्मिक आतंकवाद ही नहीं, जातीय आतंकवाद भी है इस देश की सच्चाई

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भारतीय राजनीति में एक सच्चाई अब किसी से छुपी नहीं है—भाजपा की राजनीति धर्म आधारित है। हर बार जब यह नैरेटिव कमजोर पड़ता है, देश में अचानक कोई दर्दनाक और चौंकाने वाली घटना घट जाती है—कभी पुलवामा, तो कभी पहलगाम। सवाल ये है कि क्या हर बार देश की सुरक्षा और खुफिया तंत्र की विफलता का जिम्मेदार कोई नहीं?


अगर धर्म के नाम पर हत्या आतंकवाद है, तो जाति के नाम पर हत्या उससे कम कैसे?

NCRB (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) के आंकड़े बताते हैं कि जातीय हिंसा के कारण मरने वालों की संख्या आतंकवाद से ज़्यादा है, फिर भी इस पर कोई चर्चा क्यों नहीं होती? टीवी डिबेट में पाकिस्तान का पानी रोकने की बातें होती हैं, लेकिन क्या कभी ‘जातिवादी हिंसा’ का पानी रोकने की बात होगी?


मीडिया की चुप्पी और सरकार की नाकामी


जब भी कोई आतंकी हमला होता है, सरकार की सुरक्षा विफलता को उजागर करने के बजाय हमारा चाटुकार मीडिया उसे तुरंत धार्मिक एंगल दे देता है। बात accountability की होनी चाहिए थी, लेकिन बनती है मज़हब की।


देश को वादों में 56 इंच का सीना दिखाने वाला प्रधानमंत्री मिला था, लेकिन ज़मीन पर हाल ये है कि हमले के वक़्त वो चुनावी रैलियों में व्यस्त होते हैं, और पीड़ितों को घंटों तक कोई मदद नहीं मिलती। क्या ये ‘मजबूत नेतृत्व’ की मिसाल है?


चुनिंदा ग़ुस्सा, दोहरा चरित्र


जब किसी दलित, पिछड़ी या बहुजन लड़की के साथ अत्याचार होता है, कोई हिंदू संगठन सड़क पर नहीं उतरता। लेकिन अगर पीड़िता मुस्लिम हो, तो मोर्चा, माला और मशाल सब बाहर आ जाते हैं।

क्या इंसाफ़ धर्म देखकर तय किया जाएगा?

ये ‘सेलेक्टिव आक्रोश’ नहीं, बल्कि सुनियोजित पाखंड है, जो ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना का ही हिस्सा है।


मनुवाद को जड़ से उखाड़ना होगा


अब बहुजन समाज खामोश नहीं रहेगा।

हम न जातीय आतंकवाद को सहेंगे, न मनुवादी मानसिकता को।

हम समता, बंधुता और न्याय के आधार पर नया समाज बनाएंगे।

बाबा साहब अंबेडकर और कांशीराम साहब के मिशन को कमजोर करने वालों को इतिहास माफ नहीं करेगा।


कुंभ में 30 हिंदू मरे, कोई मोर्चा नहीं निकला


कश्मीर की घटना दुःखद है और हम पीड़ितों के साथ खड़े हैं। लेकिन सवाल ये है:

जब कुंभ मेले में 30 हिंदू मरे, तब कोई राष्ट्रवादी गुस्सा क्यों नहीं फूटा?

क्योंकि वो मौतें ‘राजनीतिक नैरेटिव’ में फिट नहीं बैठतीं।

ये वही दोहरा चरित्र है जो आज भारत को अंदर से खोखला कर रहा है।


आरक्षण नहीं, बराबरी चाहिए


अमेरिका जैसे देशों में बहुजन बिना आरक्षण के आगे बढ़ते हैं—क्यों?

क्योंकि वहां समान अवसर मिलते हैं।

यहाँ हम आरक्षण मांगते हैं क्योंकि हमें जाति के नाम पर वंचित किया गया है।

जब तक बराबरी नहीं मिलती, यह लड़ाई—जातिवाद और मज़हबी आतंकवाद दोनों के खिलाफ—जारी रहेगी।


अब या तो संविधान चलेगा, या मनुवाद।

अब या तो इंसाफ़ होगा, या आंदोलन।

क्योंकि बहुजन समाज अब जाग चुका है।

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