यह बिल्कुल स्पष्ट होता जा रहा है कि वर्तमान शासन व्यवस्था ने बहुसंख्यक बहुजन समाज के अधिकारों और आकांक्षाओं को योजनाबद्ध ढंग से हाशिये पर धकेल दिया है।

 



यह बिल्कुल स्पष्ट होता जा रहा है कि वर्तमान शासन व्यवस्था ने बहुसंख्यक बहुजन समाज के अधिकारों और आकांक्षाओं को योजनाबद्ध ढंग से हाशिये पर धकेल दिया है। शासन की प्राथमिकताएँ अब लोकतांत्रिक नहीं रहीं — वे जातिगत और वर्गगत विशेषाधिकारों के इर्द-गिर्द केंद्रित हो चुकी हैं।


सत्ता की संरचना आज फिर उसी सामंती और औपनिवेशिक मानसिकता का रूप ले चुकी है, जहाँ बहुजन समाज को एक ‘नियंत्रित प्रजा’ के रूप में देखा जाता है — जिसे केवल वोटबैंक और भीड़ बनाकर इस्तेमाल किया जाए, मगर निर्णय की प्रक्रिया और नीति निर्माण से दूर रखा जाए।


सबसे चिंताजनक बात यह है कि अब यह शासन व्यवस्था चुनाव प्रक्रिया तक को अपने नियंत्रण में लेने के हथकंडे सीख चुकी है। ऐसे में यह सवाल बेहद मौजूं है — क्या भारत फिर से एक नई परतंत्रता की ओर बढ़ रहा है?


यह समय आत्ममंथन का नहीं, जनचेतना के नवजागरण का है। यदि बहुजन समाज इस अन्याय को सिर्फ देखने और सहने तक सीमित रहा, तो यह गुलामी स्थायी रूप ले सकती है। अब वक्त है — संगठित होने का, सवाल उठाने का, और एक नई वैकल्पिक राजनीतिक चेतना के निर्माण का।

Featured Post

RSS - वे पांच किताबें, जो आरएसएस की विचारधारा ( हिंदूवादी) के महल को पूरी तरह ध्वस्त कर सकती हैं-विश्व पुस्तक दिवस

  वे पांच किताबें, जो आरएसएस की विचारधारा ( हिंदूवादी) के महल को पूरी तरह ध्वस्त कर सकती हैं-विश्व पुस्तक दिवस (23 अप्रैल) 1- गुलामगिरी- जोत...