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चुप्पी: सामाजिक न्याय की ताक़तवर शत्रु अन्याय के विरुद्ध चुप रहना, अन्याय को समर्थन देने जैसा है।

 

चुप्पी: सामाजिक न्याय की ताक़तवर शत्रु

अन्याय के विरुद्ध चुप रहना, अन्याय को समर्थन देने जैसा है।


यह कथन केवल नैतिक चेतावनी नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का मूल मंत्र है। जब हम सामाजिक न्याय की बात करते हैं—अर्थात एक ऐसी व्यवस्था जहाँ जाति, लिंग, धर्म, वर्ग या किसी भी पहचान के आधार पर भेदभाव न हो—तो सबसे पहली शर्त होती है: सच बोलने का साहस। लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे समाज में चुप्पी एक संस्कार की तरह विकसित कर दी गई है — और यही चुप्पी सामाजिक न्याय की सबसे बड़ी और सबसे ताक़तवर शत्रु बन चुकी है।


चुप्पी किसकी, किसके लिए और क्यों?


चुप्पी केवल शब्दों की अनुपस्थिति नहीं है, यह सत्ता और अन्याय को मौन समर्थन है। जब कोई दलित बच्चा स्कूल में अपमानित होता है और हम “शांति बनाए रखने” के नाम पर चुप रहते हैं, तो यह चुप्पी शोषण को वैधता देती है। जब कोई महिला workplace पर उत्पीड़न झेलती है और उसके सहकर्मी “परेशानी में न पड़ने” के लिए आँखें फेर लेते हैं, तब चुप्पी यौन हिंसा की सहयोगी बन जाती है।


इस चुप्पी का चरित्र बहुआयामी है: 

* कुछ चुप्पी डर की उपज होती है,

* कुछ सुविधा और मौन स्वीकृति से आती है,

* और कुछ चुप्पी समाज में बने हुए ताकत के समीकरणों को बचाने का तरीका होती है।


इतिहास गवाह है: जहां आवाज उठी, वहीं बदलाव हुआ

* महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर — इन सभी ने चुप्पी तोड़कर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी।

* अगर ये लोग भी समाज की “परंपराओं” और “धार्मिक मर्यादाओं” के नाम पर चुप रहते, तो आज हम समानता, शिक्षा और अधिकारों की जो बातें करते हैं, वह केवल सपना ही रह जाता।


चुप्पी तोड़ना जोखिम भरा ज़रूर होता है, लेकिन बोलना ही परिवर्तन का पहला क़दम है। हर क्रांति की शुरुआत एक आवाज़ से होती है, और हर अत्याचार की नींव चुप्पी से मज़बूत होती है।


चुप्पी: सवर्ण-सुविधा का औजार


सामाजिक न्याय के विरोध में चुप्पी एक रणनीति भी है — विशेष रूप से उन वर्गों द्वारा जो ऐतिहासिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त रहे हैं। जब आरक्षण पर हमला होता है, जब पिछड़ों की आवाज़ को “तुष्टिकरण” कहकर खारिज किया जाता है, तब देश का एक बड़ा शिक्षित, सभ्य और “तटस्थ” तबका चुप्पी ओढ़ लेता है। यह तटस्थता असल में पक्षपात का परिष्कृत रूप है, जो सत्ता-संतुलन को जस का तस बनाए रखना चाहता है।


आज की चुप्पी: तकनीकी दौर की नई चुनौती


आज जब सोशल मीडिया, व्हाट्सएप, यूट्यूब हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का मंच देता है, तब भी यदि समाज के अन्याय पर अधिकांश लोग चुप रहते हैं—या मज़ाक, ट्रोल और गाली के जरिए सवाल पूछने वालों को चुप कराते हैं—तो यह डिजिटल चुप्पी या विरोध के विरुद्ध भीड़तंत्र सामाजिक न्याय का नया दुश्मन बन जाती है।


चुप्पी के विरुद्ध बोलना ही सामाजिक न्याय की पहली शर्त है

* हर बार जब कोई बच्चा स्कूल में जातिवादी टिप्पणी सुनता है, और शिक्षक चुप रहते हैं — सामाजिक न्याय मारा जाता है।

* जब मजदूरों की मज़दूरी मार ली जाती है और हम “अपना क्या” कहकर चुप रहते हैं — इंसाफ की जड़ों पर कुल्हाड़ी चलती है।

* जब संविधान की आत्मा पर हमला होता है और हम “राजनीति से दूर” रहने की बात करके चुप हो जाते हैं — तब लोकतंत्र का गला घुटता है।


निष्कर्ष: आवाज़ ही न्याय का बीज है


चुप्पी एक विकल्प नहीं है। वह सामाजिक न्याय की कब्र है। अगर हम सचमुच एक बराबरी के, गरिमा-पूर्ण समाज की कल्पना करते हैं, तो हमें अपने-अपने हिस्से की चुप्पी तोड़नी होगी — भले वह घर के भीतर हो, दफ्तर में, सड़क पर या संसद में।

जब तक सबसे कमज़ोर की पीड़ा पर हम चुप रहेंगे, तब तक सामाजिक न्याय केवल किताबों में रहेगा।इसलिए ज़रूरी है कि हम न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी बोलें — और तब तक बोलते रहें जब तक न्याय एक सामान्य मानवीय अनुभव न बन जाए।

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