अकबर और घास की रोटी....
यह बात साल 1576 के ठीक बाद की है। जब मुगल सम्राट अकबर, मेवाड़ के महाराणा प्रताप से हल्दीघाटी का युद्ध हार गया था।
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महाराणा प्रताप का पूरे भारत पर कब्जा हो गया औऱ मेवाड़ विश्व की राजधानी बन गया था।
अकबर ने विश्वस्त सिपहसालारों और परिवार के साथ अरावली के जंगलो में शरण ली। बेहद दीन हीन दशा में उनका वक्त गुजर रहा था।
जंगल में उन्हें कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। राशन खत्म हो गया, भूखो मरने की हालत हो गई। मजबूरन शहंशाह अकबर घास के बीजों से रोटियां बनाने और खाने लगे।
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एक सुबह, अकबर ने देखा कि एक जंगली बिल्ला युवराज सलीम के हाथ से घास की रोटी छीन कर भाग गया।
भूखे सलीम जोर जोर से रोने लगे। जिस बाबर पुत्र चगताई मुगल अकबर को महाराणा से हल्दीघाटी की हार भी न तोड़ पाई, वह अपने बच्चे के हाथ से घास की रोटी छिनने से विकल हो गया।
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इस असहाय हालत में उन्होंने इस घटना का वर्णन करते हुए, महाराणा प्रताप को पत्र लिखा कि वह आत्मसमर्पण करने को तैयार है।
मेवाड़ से पूरे भारत पर शासन कर रहे महाराणा प्रताप ने उसका खत पढा तो उनकी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे। यह ठीक है कि अकबर उनका शत्रु था। मगर सलीम तो मासूम था।
भला एक बच्चे का इसमे क्या दोष है।
घास की रोटी खाकर यदि प्रोटीन, विटामिन, औऱ कार्बोहाइड्रेट की कमी से सलीम को कुपोषण से बेरी बेरी, स्कर्वी, क्वाशीओरकर, ओस्टियोपोरोसिस हो गया तो वे अपने आपको कैसे माफ कर पाएंगे।
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लेकिन राणा के दरबार मे राजा मानसिंह, जो अकबर के बहनोई थे, जब उन्हें यह खबर मिली तो वे बड़े विचलित हुए।
उन्होंने पत्र लिखा और और अकबर को याद दिलाया बताया कि वह तो महान बाबर, हिम्मती हुमायूं की संतान है। ही शूड नाट डिफर फ्रॉम हिज पाथ ऑफ स्ट्रगल..
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मानसिंह के शक्तिशाली शब्दों ने अकबर की मनःस्थिति बदल दी और उनका मुगलिया खून फिर से सल्तनत की रक्षा के लिए उबल पड़ा।
उसने अपनी ताकत जमा करके वापस महाराणा प्रताप पर हमला किया। युद्ध का स्थान वर्ष अभी अज्ञात है, परंतु इस बार सलीम के कष्ट से द्रवित हो चुके महाराणा ने अपना 80 किलो का भाला यूज नही किया।
अकबर को वाकओवर मिल गया। इस तरह भारत मे मुगल साम्राज्य की पुनर्स्थापना हुई।
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प्रसिद्ध कवि कन्नहैयालाल सेठिया लिखित ये कविता 'हरे घास री रोटी', मुगल सम्राट अकबर के जीवन के इसी अध्याय का वर्णन करती है।
अरे घास री रोटी ही,
जद बन बिलावडो ले भाग्यो।
नान्हों सो सलीमियो चीख पड्यो,
अकबर रो सोयो दुःख जाग्यो। ।
हूँ लड्यो घणो, हूँ सह्यो घणो,
मुगलिया मान बचावण नै।
में पाछ नहीं राखी रण में,
बैरया रो खून बहावण नै। ।
जब याद करूं हल्दीघाटी,
नैणा में रगत उतर आवै।
सुख दुख रो साथी चेतकडो,
सूती सी हूक जगा जावै। ।
पण आज बिलखतो देखूं हूँ,
जद शहजादे नै रोटी नै।
तो मुल्ला धर्म नें भूलूं हूँ,
भूलूं हिन्वाणी चोटौ नै। ।
आ सोच हुई दो टूक तडक,
अकबर री भीम बजर छाती।
आंख्यां में आंसू भर बोल्यो,
हूँ लिख्स्यूं राणा नै पाती। ।
अकबर रो कागद बांच हुयो,
राणा रो सपणो सो सांचो।
पण नैण करया बिसवास नहीं,
जद बांच बांच नै फिर बांच्यो। ।
बस दूत इसारो पा भाज्यो,
मानसिंह ने तुरत बुलावण नै।
किरणा रो माना आ पूग्यो,
राणा रो भरम मिटावण नै।
म्हे बांध लिये है अकबर !
सुण पिजंरा में जंगली सेर पकड।
यो देख हाथ रो कागद है,
तू देका फिरसी कियां अकड। ।
हूँ आज पातस्या धरती रो,
मुगलिया ताज पाग पगां में है।
अब बता मनै किण रजवट नै,
रजुॡती खूण रगां में है। ।
जद मानसिंह कागद ले देखी,
अकबर री सागी सैनांणी।
नीचै सूं धरती खिसक गयी,
आंख्यों में भर आयो पाणी। ।
पण फेर कही तत्काल संभल,
आ बात सफा ही झूठी हैं।
अकबर री पाग सदा उंची,
मुगलिया आन अटूटी है। ।
ज्यो हुकुम होय तो लिख पूछूं,
अकबर नै कागद रै खातर।
लै पूछ भला ही माना तू !
आ बात सही बोल्यो राणा। ।
म्हें आज सूणी है नाहरियो,
स्याला रै सागै सोवैलो।
म्हें आज सूणी है सूरजडो,
बादल री आंटा खोवैलो। ।
माना रा आखर पढ़ता ही,
अकबर री आंख्या लाल हुई।
धिक्कार मनैं में कायर हूँ,
नाहर री एक दकाल हुई। ।
हूँ भूखं मरुं हूँ प्यास मरूं,
मुगलई धरा आबाद रहैं।
हूँ घोर उजाडा में भटकूं,
पण मन में दिल्ली याद रह्वै। ।
अकबर के खिमता री,
जो रोकै सूर उगाली नै।
सिहां री हाथल सह लैवे,
वा कूंख मिली कद स्याली नै। ।
जद अकबर रो संदेस गयो,
माना री छाती दूणी ही।
हिंदवाणो सूरज चमके हो,
राणा री दुनिया सूनी ही.
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इतिहास बदलने की कोशिश में आपको आख्यानक बदलने पड़ेंगे. झूठी रचनाये लिख सामूहिक चेतना को दबाना होगा. भारी काम है, बहुत लोग लगेंगे. इतिहास सुधार विभाग बनाना होगा.
एक आख्यानक मैनें बदलकर इस विभाग के अध्यक्ष पद पर अपनी दावेदारी ठोक दी है.