चुनावों से परे लोकतंत्र: सहभागी नागरिक होने का वास्तविक अर्थ
(एक विचारोत्तेजक और तथ्यपरक लेख)
लोकतंत्र को अक्सर हम चुनावों के पर्याय के रूप में देखते हैं। हर पाँच वर्ष में मताधिकार का प्रयोग करना, अपने पसंदीदा नेता या पार्टी को वोट देना—यही नागरिक कर्तव्य मान लिया गया है। लेकिन क्या यही लोकतंत्र है? क्या चुनाव ही लोकतंत्र का सार हैं?
असल में लोकतंत्र का तात्पर्य केवल शासन-प्रणाली नहीं, बल्कि एक जीवन-पद्धति है—एक ऐसा ढाँचा जो नागरिकों की निरंतर सक्रिय भागीदारी पर आधारित होता है। अगर हम इसे केवल मतपेटी तक सीमित कर दें, तो हम उसकी आत्मा को खो बैठते हैं।
1. लोकतंत्र का अधूरा विमर्श: चुनावों तक सीमित समझ
भारत जैसे विशाल देश में लोकतंत्र को अक्सर इस रूप में परिभाषित किया जाता है—“जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन।” लेकिन वास्तविकता यह है कि जनता से तात्पर्य केवल मतदाता बनकर रह गया है, न कि जागरूक, जिम्मेदार और सतत् सहभागी नागरिक के रूप में।
राजनीतिक दल भी चुनावों के दौरान ही जनता के पास आते हैं, वादे करते हैं, फिर पाँच वर्षों तक गायब हो जाते हैं। आम नागरिक भी चुनाव के बाद राजनीति को गंदा कहकर किनारा कर लेते हैं। इस रवैये से लोकतंत्र को सक्रिय प्रणाली नहीं, बल्कि निष्क्रिय आयोजन बना दिया गया है।
2. सहभागी लोकतंत्र का विचार: नागरिक की भूमिका चुनावों के बाद शुरू होती है
सच्चा लोकतंत्र वहीं होता है जहाँ नागरिक हर समय भागीदार होते हैं—
• नीतियों के निर्माण में सुझाव देने वाले,
• शासन की पारदर्शिता पर निगाह रखने वाले,
• अन्याय, भ्रष्टाचार और अयोग्यता के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले,
• और सकारात्मक बदलाव के लिए मिलकर काम करने वाले।
सहभागी नागरिक वह होता है जो सिर्फ सवाल करता नहीं, उत्तरदायित्व भी निभाता है—अपने मोहल्ले, स्कूल, नगरपालिका, पर्यावरण, मीडिया, और डिजिटल स्पेस में।
3. चुनावों से परे लोकतांत्रिक हस्तक्षेप के उदाहरण
भारत में कई ऐसे उदाहरण हैं जहाँ नागरिकों ने बिना किसी चुनावी हैसियत के लोकतंत्र को जीवंत किया है—
• RTI आंदोलन (सूचना का अधिकार): यह पहल आम नागरिकों ने शुरू की थी ताकि शासन की पारदर्शिता सुनिश्चित हो।
• नर्मदा बचाओ आंदोलन, हासदेव जंगल संरक्षण, निर्भया आंदोलन, अन्ना हज़ारे का जन लोकपाल आंदोलन—इन सबमें जनता ने लोकतंत्र का प्रयोग किया बिना चुनाव लड़े।
• सोशल मीडिया व डिजिटल एक्टिविज़्म: आज के युग में एक नागरिक ट्वीट, पोस्ट, या ईमेल के ज़रिए भी लोकतंत्र को झकझोर सकता है।
4. केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य भी निभाएं
जब नागरिक सिर्फ अधिकारों की बात करते हैं—“हमें पानी चाहिए”, “हमें सड़क चाहिए”—लेकिन कर्तव्यों से मुँह मोड़ लेते हैं—“हम टैक्स नहीं देंगे”, “हम वोट नहीं देंगे”, “हम भ्रष्टाचार देख कर भी चुप रहेंगे”—तब लोकतंत्र खोखला हो जाता है।
सहभागी नागरिक होने का अर्थ है:
• जानकारी रखना
• संवाद में भाग लेना
• सवाल पूछना
• झूठ और दुष्प्रचार के खिलाफ खड़ा होना
• और ज़रूरत पड़े तो सड़कों पर उतरना।
5. लोकतंत्र केवल सत्ता का समीकरण नहीं, सामाजिक जिम्मेदारी है
लोकतंत्र का दायरा केवल संसद और विधानसभाओं तक नहीं है।
• विद्यालयों में बच्चों की आवाज़ सुनी जाती है या नहीं,
• मीडिया निष्पक्ष है या नहीं,
• कार्यस्थलों पर समानता है या नहीं,
• स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों को बराबरी मिल रही है या नहीं—यह सब लोकतंत्र का हिस्सा है।
इसलिए, एक सहभागी नागरिक को हर मोर्चे पर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करनी होती है।
निष्कर्ष: लोकतंत्र एक सतत् प्रयास है, सिर्फ आयोजन नहीं
अगर हम लोकतंत्र को केवल चुनावों तक सीमित रखते हैं, तो वह एक ‘इवेंट’ (घटना) बनकर रह जाता है। लेकिन यदि हम उसे नैतिक जागरूकता, सामाजिक भागीदारी और राजनीतिक जिम्मेदारी के रूप में समझें, तो वह एक जीवंत प्रक्रिया बन जाता है।
सहभागी नागरिक होने का अर्थ है अपने समय का सजग साक्षी बनना—कायर चुप रहते हैं, मतलबी तटस्थ रहते हैं, लेकिन नागरिक वही है जो बोलता है, करता है और बदलता है।
कृपया चुनावों तक सीमित मत रहिये। लोकतंत्र को जीवंत बनाइये। सवाल पूछिए, संवाद करिये, संकल्प लीजिये—तभी लोकतंत्र बचेगा, बढ़ेगा और समृद्ध होगा।
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