बोधिसत्व डा0 भीमराव अम्बेडकर बनाम सनातनी महात्मा गान्धी
स्वदेश कुमार
अपर महा सचिव
अम्बेडकर ट्रस्ट आॅफ इण्डिया लखनऊ
हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा- अली सरदार जाफरी। विश्वगुरू बनने का स्वप्न देखने वाले भारत में झूठ, धोखाधड़ी, छल, कपट एवं अहंकार के अधीनायकवाद ने जिस तरह से अपने काले बादलों के डेनै फैला रखे हैं, एवं उनके भीतर से डरावनी बिजली कड़क रही है, उससे अब अपने घर परिवार संभाल कर रखना कठिन हो गया है। हमारी सबसे बड़ी मुश्किल है कि हम न तो अपनी प्राचीन परम्परा एवं संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम और सनातन धर्म को ठीक से समझ पा रहे है, और ना ही विज्ञान और उससे जुड़ी गैर-युरोपीय आधुनिकता को। हम अपने-पराए के व्याकरण में इतने खो गए कि हमें सत्ता, पूंजी एवं प्रौद्योगिकी के पाखण्ड के अलावा कुछ दिखायी नहीं देता, हमारी संस्कृति, सारा धर्म एवं चेतना एक इवेन्ट बनकर रह गए। हमने अपने वाह्य रूप को अपने भीतर सनातन मूल्य की तरह से बिठा लिया है और संस्कृति, धर्म, चेतना के समस्त मूल्यों और उसकी अन्तरात्मा को बहिष्कृत या विस्मृत कर दिया है। इस तिमिर का निदान क्या गांधी जी कर सकते है या डा0 आम्बेडकर? गान्धी और आम्बेडकर एक दूसरे के विपरीत विचार धारा वाले रणनीतिकार थे, गान्धी जी सनातनी थे, लेकिन उनके लिये सनातनी होने का अर्थ किसी मन्दिर में माथा टेकना या किसी बाबा एवं शंकराचार्य के चरणों में लोटना नहीं था। लेकिन राजनीतिक दलों ने गान्धी एवं आम्बेडकर के विचारों को समझने के बजाय, उन्हें एक पोस्टर व्वाय के तौर पर इस्तेमाल करते चले आ रहे है। राजनीतिक दलों को डर है कि अगर गान्धी या डा0 आम्बेडकर के विचार जाग गए तो उनकी सत्ता खतरे में पड़ जायेगी। उन्होंने डा0 आम्बेडकर एवं गान्धी से लड़ने की रणनीति सीखी लेकिन आम्बेडकर के उन विचारों को भुला दिया जहाँ वे कहते है कि समता और बन्धुत्व का विचार तो कार्ल माक्र्स से ढाई हजार साल पहले भारत में बुद्ध के समय जन्मा था एवं बन्धुत्व का विचार ही वह मूल्य है जो स्वतंत्रता और समता को बांधकर रख सकता है। तुसली कृति रामायण पढ़ने एवं सुनने वाले इस दोहा का अर्थ अभी तक नहीं समझ पाए। परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई। सब अमरत्व हासिल करने के चक्कर में उसकी मूल प्रवृत्ति को खोजने का साहस नहीं कर पा रहे। एक आदमी स्वयं का दीपक बनकर, दूसरों को भी दीप जला सकता है। गेल ओमवेट अपनी किताब आम्बेडकर, प्रबुद्ध भारत में कहती है। गान्धी उस समाज के पिता थे, जहाँ उन्होंने हिन्दू ढाचे को बरकरार रखते हुए समानता एवं वर्ण व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास किया था तो आम्बेडकर अपने लोगों के बाबा थे यानी एक महान मुक्तिदाता थे, जो स्थापित ढाचे से मुक्ति चाहते थे। महात्मा गांधी को सत्य एवं अहिंसा के रूप में जाना जाता है। डा0 आम्बेडकर को दलितों, शोषितों एवं वंचितों का प्रतिनिधि माना जाता है। गान्धी धोती पहने, चरखा चलाते दिखाई पड़ते है। वे ग्राम स्वराज्य के हिमायती थे। पारम्परिक भारतीय गाँवों को गौरवमय दर्जा देते थे एवं धार्मिक जड़ता के पैरोकार थे, वही डा0 आम्बेडकर पश्चिमी पोशाक पहने, युगों की धरोधर पर दलितों का दावा ठोकते नजर आते है। बाबा साहेब ब्राह्मणवादी एवं संकीर्ण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अस्वीकार करते है। डा0 आम्बेडकर की पहली मुलाकात अगस्त 1931 में गान्धी जी से बम्बई में हुई थी। गान्धी ने आम्बेडकर को बताया कि उन्होंने समाज सुधार के लिये बहुत काम किया। बाबा साहब ने उत्तर दिया कि सभी बूढ़े-बुजुर्ग बीते जमाने की बातों पर अधिक बल देते है, कांग्रेस ने अछूतों के लिये अब तक क्या किया? अछूतों के नाम पर आवंटित होने वाली निधि का दुरूपयोग हो रहा है। बाबा साहेब ने महात्मा गान्धी से कहा कि गान्धी जी हमारा कोई वतन नहीं। गान्धी ने जवाब दिया कि मैं जानता हूँ आप कृत्रिमता से दूर एक सच्चे आदमी है। बाबा साहेब ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा कि मैं इस वतन को अपना वतन कैसे कहूू और हिन्दू धर्म को अपना धर्म कैसे कहूं, जहाँ हम लोगों की हैसियत कुत्ते बिल्लियों से अधिक नहीं है हमे पीने को पानी भी मयस्सर नहीं है। कोई भी आत्म सम्मान वाला शूद्र ऐसे देश पर कैसे गर्व कर सकता है। अक्टूबर 1930 में आम्बेडकर एवं एम0एन0 श्रीनिवासन भारत के दलितों के प्रतिनिधि के रूप में प्रथम गोल मेज सम्मेलन में भाग लेने हेतु लन्दन गए। वहां बाबा साहेब ने दो-टूक शब्दों में कहा था कि दलितों की राजनैतिक स्वतंत्रता, भारत की स्वतन्त्रता के पहले ही सुनिश्चित की जा सकती है, भारत में नौकरशाही व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए और लोगों को, लोगों द्वारा तथा लोगों के लिये सरकार का गठन होना चाहिए। हमारे दुखों का अन्त कोई दूसरा नहीं कर सकता हम स्वयं उन्हें तब तक खत्म नहीं कर सकते, जब तक कि हमारे हाथों में सत्ता न आ जाये, हमारे हाथ राजनीतिक सत्ता तब तक नहीं आ सकती जब तक कि ब्रिटिश सरकार सत्ता पर कब्जा किए है। डा0 आम्बेडकर बहुयामी प्रतिमा के धनी भारत भाग्य विधाता एवं निर्माता थे। बाबा साहेब का राष्ट्रवाद उनके जीवन के समस्त कार्यों में परिलक्षित होता है, चाहे उनके विभिन्न राजनीतिक दलों का कार्यक्रम हो, राजनीतिक निर्णय हो, जातिगत समस्या, मुस्लिम समस्या, अल्प संख्यकों की समस्या, पाकिस्तान के सृजन, महिलाओं की समस्या, सभी में उनका योगदान रहा। वर्ण-व्यवस्था का पुरजोर समर्थन करने वाली भगवत गीता महात्मा गान्धी के साथ-साथ चलती थी जिसके खिलाफ बापू एक शब्द नहीं सुनना चाहते थे। इस संदर्भ में बाबा साहेब ने 03.10.1951 को आकाश वाणी से प्रसारित एक वार्ता में कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति का एक जीवन दर्शन होता है। क्योंकि हरेक व्यक्ति का अपने जीने का एक तरीका होता है, और इसी का नाम दर्शन है। मैं स्पष्ट रूप से भागवद्गीता में वर्णित हिन्दू समाज-दर्शन को अस्वीकार करता हूँ, क्योेंकि यह उस सांख्य दर्शन के त्रिगुण पर आधारित है, जो मेरे विचार में कपिल-दर्शन का एक क्रूर विकृतीकरण है और जिसने हिन्दू सामाजिक जीवन के कानून के रूप में जाति-प्रथा और श्रेणीकृत असमानता के सिद्धान्त की रचना की है। बाबा साहेब का जीवन दर्शन स्वतंत्रता समानता एवं बन्धुता का था। हिन्दुत्व की प्रतिष्ठा जितनी वशिष्ठ जैसे ब्राह्मणों, कृष्ण जैसे क्षत्रिय, हर्ष जैसे वैश्य, तुकाराम जैसे शूद्र ने की, उतनी ही बाल्मीकि, चोरवा भोला व रविदास, कबीर जैसे अस्पृश्यों ने भी की है। हिन्दुत्व की रक्षा करने के लिये हजारों शूद्रों ने अपना जीवनदान दिया। हिन्दू धर्म को जिन्दा रखने वाले शूद्र एवं पिछड़ी जाति वाले है। सम्पूर्ण हिन्दू संस्कारों, त्यौहारों, आडम्बरों, रीति-रिवाजों को दलित बहुजन समाज अपने कन्धों पर ढो रहा है। बाबा साहब ने सही ही कहा था कि देवी देवताओं, भगवानों की मूर्तियां बनाने वाले शूद्र, मन्दिरों, धर्मशालाओं का निर्माण करने वाले शूद,्र उनकी सुरक्षा करने वाले शूद्र, लेकिन मन्दिरों, मठो में देवी देवताओं एवं ईश्वरों की पूजा करने वाले ब्राह्मण दान, दक्षिणा से मिली रकम, चढ़ावा खाने वाले ब्राह्मण, हिंसा भड़काने वाले यही वर्ग। हिन्दूत्व की रक्षा करने वाले अछूतों को क्या मिला? क्या उन्हें मनुष्य के बराबर का दर्जा मिला? बाबा साहेब ने कहा था कि हिन्दू धर्म जीवन को पंगु बनाने का काम करता है, हिन्दू धर्म में सामान्य मनुष्यों के लिये कोई सुख नहीं, मानव दुखों के लिये कोई सम्वेदना नहीं, कमजोरों के लिये कोई सहायता नहीं। कुछ वर्ग के लिये स्वर्ग अन्य सभी के लिये नर्क। एक समय था, जब कोई द्विज हिन्द महासागर के पार जायेगा, तो वह अपनी जाति खो देगा एवं प्रदूषित हो जायेगा। परन्तु आजकल जाति व्यवस्था का निर्यात हो रहा, द्विज जहाँ भी जाते है इसे अपने साथ ले जाते है। उस देश में जाकर प्रदूषण फैलाते है। यूरोप एवं अमेरिका में सवर्ण एवं दलितों ने अपने-अपने संगठन, मन्दिर बना लिए है। सवर्ण लोग वहाँ पर जातिवाद फैला रहे है। ग्रेट ब्रिटेन में दलित नेतृत्व वाले समूह यह प्रयास कर रहे है कि जातीय भेदभाव को ब्रिटिश कानून में एक प्रकार का नस्ली भेदभाव मान लिया जाए। द्विज-हिन्दूत्व लाबी इसमें टँाग अड़ाकर रोकने का भर्सक प्रयास कर रही है। जाति को पहली बार चुनौती का सामना करने के लिये ढाई हजार वर्ष पहले तथागत बुद्ध ने संघों की रचना की, जिनमें सभी को प्रवेश दिया जाता था, चाहे वे किसी जाति, समुदाय के हो। लेकिन भारत में ऊच-नीच की दीवार, जाति पर टिकी रही। 12वीं सदी के मध्य में दक्षिण भारत में बसवन्ना के नेतृत्व में वीर शैवों ने जाति को कुचल दिया। सन्त रविदास ने कहा था कि ऐसा चाहूँराज मैं जहाँ मिले सबन को अन्न। छोट-बड़ो सब सम बसें, रैदास रहे प्रसन्न। बाबा साहेब आम्बेडकर के परिनिर्वाण होने के तुरन्त बाद भारत में तत्कालीन सत्ताधारी दल ने बाबा साहेब के वांग्मय को काल कोठरी में बन्द करवा दिया। उनके लेखों, साहित्य, प्रवचनों, पुस्तकों को दुनिया की नजरों से छिपा दिया। आम्बेडकर की इन्कलाबी बौद्धिकता पर इतिहास ने ढाका डाला जैसे बौद्ध धर्म का उदय भारत में हुआ था परन्तु इसको नेस्तनाबूद करने में हिन्दू धर्म ने कोई कसर नहीं छोड़ी केन्द्र सरकार ने गान्धी के चुने हुए लेखों का पहला संग्रह उनकी हत्या के एक दशक बाद 1958 में प्रकाशित किया था, एवं 100 खन्डो में उनके वांग्मय को 1994 में। पन्डित जवाहर लाल नेहरू के 27 मई, 1964 में देहावसान के तत्काल बाद ही उनके सम्पूर्ण कृतित्व की संरक्षा के लिये नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एवं लाइब्रेरी की स्थापना करके रखवा दी गयी। संविधान के निर्माता, जाति एवं पितृसत्ता से लड़ने वाले, करोड़ों लोगो के आईकान श्रमिकों के अधिकारों के रक्षक बाबा साहेब का सम्पूर्ण लेखन महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग के दफ्तर में धूल खाता रहा। उनके लिखे हुए ग्रन्थों के प्रति सरकारी उपेक्षा के अनेक कारण थे जिसमें हिन्दुत्व एवं हिन्दू धर्म के प्रति उनका कटु आलोचक होना, एक बड़ा कारण था। डा0 आम्बेडकर ने भारतीय विचार दर्शन पर गहरी छाप छोड़ी है। नौकरशाही की उदासीनता और बौद्धक सम्पदा को लेकर उत्पन्न विवादों के बीच, आम्बेडकरवादी व्यक्तियों की कमेटी के अन्दर और बाहर किए गए परिश्रम, भूख हड़ताल, धरना प्रदर्शन में महत्वपूर्ण योगदान रहा। आम्बेडकर के काम को प्रकाशित रूप में सुरक्षित रखना सुनिश्चित किया गया एवं उनको शाश्वत रखने हेतु डिजिलीटइज कर रहे है। आम्बेडकर जी की विरासत को बचाने के लिये बहुत लम्बा संघर्ष चल रहा है। क्योंकि बाबा साहेब को अभी तक न्याय नहीं मिला। उनकी रचनाओं के प्रकाशक और नागपुर आधारित, भारतीय दलित पेन्थर के अध्यक्ष प्रकाश बन सोड एवं संस्था प्रयास कर रही है। बाबा साहेब द्वारा लिखित दि बुद्धा एण्ड हिज धम्म उनकी रचनाओं में सर्व श्रेष्ठ है। राव साहेब कसवे ने कहा है कि डा0 आम्बेडकर ने बुद्ध को एक क्रान्तिकारी रूप में देखा था, जो पूरे विश्व को बदल देगा। सन् 1931 में प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए गान्धी लन्दन गए तो वहां के सम्राट जार्ज पंचम ने उन्हें बकिंघम पैलेश में चाय पर बुलाया, वहाँ पूरी अंग्रेज कौम देखकर दंग रह गयी कि इस मौके पर भी गान्धी जी एक धोती और चप्पल पहने राजमहल पहुंचे, उनसे जब इस वेशभूषा के बारे में पूछा गया तो गान्धी ने जवाब दिया कि सम्राट ने जितने कपड़े पहने हुए थे, वह हम दोनों के लिए काफी थे। विन्स्टन चर्चिल ने उनकी भत्र्सना करते हुए कहा कि ये कितना खतरनाक और घिनौना है कि विलायत से वैरिस्ट्री पास कर आया शख्स अब राजद्रोही फकीर बन अधनंगा, वायसराय के महल की सीढ़ियों पर दनदनाता हुआ चला जा रहा है। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ नागरिक अवज्ञा आन्दोलन चलाने के बावजूद वहाँ जाकर सम्राट के समक्ष बराबरी से बैठकर समझौते की बातचीत कर रहा है। बिन्सटन चर्चिल के प्रधानमंत्री कार्यकाल में महात्मा गांधी ने कई बार आमरण अन्सन रखे, जब चर्चिल पर भारत को आजाद करने का दबाव रखा गया, तो उन्होंने कहा कि सम्राट ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को भंग करने के लिये, मुझे प्रधानमंत्री नहीं बनाया। एक बार उनके उपवास के दौरान चर्चिल ने सन्देश भेजा था कि अगर गान्धी भूख से मर जाना चाहते है तो उन्हें ऐसा करने की पूरी छूट है। आर्थर हर्मन अपनी किताब गान्धी एन्ड चर्चिल में लिखते है कि चर्चिल को पूरा विश्वास था कि गान्धी का उपवास एक सड़क छाप नौटंकी है, हो सकता है कि भारतीय उनके गुणों के कारण उनका सम्मान करते हो, लेकिन उनकी नजर में नीम हकीम भर थे। अफ्रीका के राष्ट्रपति जैन स्मटस ने चर्चिल को समझाया था कि गान्धी को हलके में न ले परन्तु उनकी चेतावनी को चर्चिल ने मजाक समझा था। डा0 अम्बेडकर के मुताबिक ’’गान्धी भारत के इतिहास में एक प्रकरण थे, वो कभी एक युग निर्माता नहीं थे, गान्धी जी पहले से ही इस देश के लोगों के जेहन से गायब हो चुके है। सत्ता दल उनके जन्मदिन 2 अक्टूबर सालाना एक दिन की छुट्टी देती है। अम्बेडकर ने कहा था कि गान्धी हमेशा से एक प्रतिद्वन्दी की हैसियत से मुझसे मिलते थे। मैंने उन्हें एक इन्सान की हैसियत से देखा, उनके अन्दर के नंगे आदमी को देखा लिहाजा मैं कह सकता हूँ कि जो लोग उनसे जुड़े है, मैं उनके मुकाबले गान्धी को बेहतर समझता हूँ। गान्धी ने अपने अंग्रेजी लेखों में जाति व्यवस्था का जोरदार समर्थन किया और गुजराती लेखों में सख्त शब्दों में छूआछूत का विरोध किया। गान्धी जी छूआछूत का विरोध इसलिये करते थे जिससे अछूत कांग्रेस से जुड़े रहे। गान्धी जी ने डा0 आम्बेडकर एवं बाबू जगजीवन राम को कैबिनेट में जगह दिलवायी थी। सन् 1932 को ब्रिटिश सरकार ने दलितों के उत्थान के लिये कम्यूनल अवार्ड, दो बोट का अधिकार दिया जिसके अनुसार देश के दलित बहुजन एक वोट से अपना दलित प्रतिनिधत्व चुन सकते थे एवं दूसरे वोट से सामान्य वर्ग के किसी एक प्रतिनिधित्व को चुन सकते थे। हम अपने दूसरे वोट के अधिकार से सवर्णों को जिधर चाहते, उधर नचाते एवं हमारे अछूतपन को मिटाने तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करने कराने में सहायक होते। इस अधिकार रूपी बम का आविष्कर गान्धी एण्ड कम्पनी की घृणित कूटनीति एवं बामन धर्म (जाति-पात) को समूल नाश करने के लिए रेमजे मेकडोनल्ड ने हमारे मुक्त दाता बाबा साहेब आम्बेडकर की सहायता से सन् 1932 में किया था। यह एटम बम्ब हजारो वर्षों से हिन्दू वेद शास्त्र, स्मृतियों आदि के द्वारा प्रतिपादित अछूतपन को एंव हिन्दूओं के जातिपात रूपी घुन मिटा देता एंव असली समानता ढोल नगाड़ा बजाता। ब्राह्मणी व्यवस्था के कर्णधार महात्मा गांधी 24 सितम्बर 1932 को येरवदा जेल में भूख हड़ताल पर, जैसे राजा दशरथ की तीसरी रानी कैकई अपने पुत्र भरत को राजगद्दी एवं राम को 14 वर्ष का वनवास। सम्पूर्ण ब्राह्मणी नेता, धर्मगुरू कांग्रेस अभिजात वर्ग गान्धी के पक्ष में था एंव बाबा साहेब पर गहन दबाव बनाया गया कि अगर गान्धी की मृत्यु हो जाती है, पूरा दोष बाबा साहेब पर थोपा जायेगा, गान्धी को मृत्यु के मुख से बाहर निकालने के लिये अप्रत्यासित होनी को रोकने के लिये बाबा साहेब कम्यूनिल एवार्ड वापस लेकर वेमन एवं रोते हुए पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर किये इसके बदले में आरक्षण की व्यवस्था की। जातिवाद पहले से अधिक अब है। संसद एवं विधान सभाआंे में आरक्षित एम0पी0 एवं एम0एल0ए0 गान्धी जी के बन्दर बनकर न बोल सकते, न सुन सकते न देख सकते। इतिहास हमें बताता है कि महात्मा लोग तुरन्त गायब हो जाने वाले प्रेतों की तरह होते है। वे धूल के गुबार तो उठाते है, पर लोगों का स्तर नहीं उठाते। समाज हमेशा अनुदार एवं रूढ़िवादी होता है, वह तब तक नहीं बदलता जब तक इसे बदलने के लिये बाध्य न किया जाए, वह धीरे-धीरे बदलता है एवं पुराने एवं नये के बीच संघर्ष होता है, पुरानी प्रथाए समाप्त होती है, तभी नयी वैज्ञानिक मान्यताएं जन्म लेती है बाबा साहेब ने रात-दिन अपना खून पसीना बहाकर हम सबको नर्क से छुटकारा दिलाया। इस सत्य को स्वीकार करके आगे बढ़ो।