तमाशबीन व्यवस्था और उबलती हुई जनता

 



तमाशबीन व्यवस्था और उबलती हुई जनता


आज का भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ संविधान का अंतःकरण कराह रहा है, और सत्ता में बैठे लोग तमाशा देख रहे हैं। जब देश में संविधान के मूल सिद्धांतों — जैसे समानता, स्वतंत्रता, न्याय और धर्मनिरपेक्षता — का खुला उल्लंघन हो रहा है,

जब अल्पसंख्यकों, छात्रों, पत्रकारों और असहमत नागरिकों की आवाज़ को दबाया जा रहा है,

और जब राज्य-व्यवस्था अपने दायित्वों से मुंह मोड़ रही है, अर्थात् मूल आदर्शों की हत्या हो रही है। जिन लोगों को संविधान की रक्षा करनी चाहिए — यानी सरकार, सत्ता में बैठे नेता, संस्थान — वे या तो चुप हैं, या जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं, या इस पूरे पतन को मूकदर्शक बनकर देख रहे हैं, जैसे कोई तमाशा हो। संविधान संकट में है, और जिनके हाथों में उसकी रक्षा की ज़िम्मेदारी है, वे निष्क्रिय या बेपरवाह बने हुए हैं।


सत्तारूढ़ दल ने मीडिया को एक ऐसे औज़ार में बदल दिया है जो सच को छिपाता है, झूठ को महिमामंडित करता है, और जनता को भ्रमित रखने में दिन-रात लगा है। एक सुनियोजित तरीके से देश का माहौल ऐसा बना दिया गया है जिसमें इंसानियत की कोई कीमत नहीं रह गई — न सच्चाई की, न सवाल की, न विरोध की।


विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — ये तीनों संवैधानिक स्तंभ आज बस दर्शक बने खड़े हैं। सबको दिख रहा है कि देश किस गर्त की ओर जा रहा है, मगर सबने चुप्पी ओढ़ ली है। संविधान के खुलेआम उल्लंघन पर भी किसी का ज़मीर नहीं काँपता। अफसरशाही ने अपनी रीढ़ सत्ता के चरणों में समर्पित कर दी है, और न्यायपालिका न्याय से अधिक ‘संतुलन’ साधने में लगी है। न्यायपालिका आज स्पष्ट अन्याय या सत्ता के दुरुपयोग पर सीधे न्याय करने के बजाय उस स्थिति को राजनीतिक, प्रशासनिक या सामाजिक ‘संतुलन’ के चश्मे से देखती है।


उदाहरण के रूप में:

• जब सरकार किसी पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता को झूठे मुक़दमे में जेल में डाल देती है — तब अदालतें त्वरित राहत देने की बजाय महीनों तक “विचाराधीन” बैठी रहती हैं।

• जब किसी अल्पसंख्यक समुदाय पर हिंसा होती है — तो अदालतें “दोनों पक्षों को संयम बरतने” की सलाह देती हैं, जैसे पीड़ित और हमलावर एक ही स्तर पर हों।

• जब संसद में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धता बताकर कोई विधेयक पास होता है — तो न्यायपालिका ‘लोकतंत्र के भीतर लोकतंत्र’ जैसे शब्दों से उसकी आलोचना तो करती है, पर ठोस कार्रवाई नहीं करती।

इस तरह न्यायपालिका न्याय नहीं करती, बल्कि ‘स्थिति को शांत रखने’, ‘सरकार को नाराज़ न करने’ और ‘व्यवस्था को बनाए रखने’ के प्रयास में उलझ जाती है — जो संतुलन साधने का दूसरा नाम है।


शासन और प्रशासन मिलकर इस देश को एक मानसिक और वैचारिक ग़ुलामी की ओर धकेल रहे हैं — जहाँ डर, धार्मिक उन्माद, और राष्ट्रवाद के नकली नारों में जनता की आवाज़ गुम हो चुकी है।


लेकिन हर अन्याय की एक सीमा होती है। इतिहास गवाह है कि जब शासक अपने ही लोगों को लूटने, डराने और बांटने लगते हैं, तब जनता चुप नहीं रहती। जिस दिन यह जनता लाठी उठाएगी, सड़कों पर उतरेगी — वह दिन सिर्फ़ क्रांति का नहीं, एक संभावित गृह युद्ध का संकेत होगा। और उस दिन सबसे पहले हिसाब उन नेताओं से मांगा जाएगा जिन्होंने लोकतंत्र को तमाशा और संविधान को खिलौना बना दिया।


यह ज़रूरी है कि इससे पहले कि हालात नियंत्रण से बाहर हों, देश के हर जागरूक नागरिक को यह सोचना होगा — हम कहाँ जा रहे हैं? क्या हमें ऐसी ही व्यवस्था मंज़ूर है जो देश को भीतर से खोखला कर रही है?

या हम खड़े होंगे — संविधान, इंसानियत और लोकतंत्र के पक्ष में?


अब भी समय है —

सोचो, समझो और विचार करो। क्योंकि अगली आवाज़ शायद तुम्हारे दरवाज़े पर होगी।

Featured Post

एर्नाकुलम में बहुजन द्रविड़ पार्टी की केरल राज्य पदाधिकारियों की बैठक सफलतापूर्वक संपन्न हुई

  एर्नाकुलम में बहुजन द्रविड़ पार्टी की केरल राज्य पदाधिकारियों की बैठक सफलतापूर्वक संपन्न हुई इस बैठक में बहुजन द्रविड़ पार्टी के राष्ट्रीय अ...