“क्या ईश्वर की आवश्यकता है?” – एक तार्किक पड़ताल
ईश्वर – एक ऐसा शब्द, जो सदियों से मनुष्य के मन-मस्तिष्क में बसा हुआ है। लेकिन जैसे-जैसे ज्ञान, विज्ञान, तर्क और अनुभव की रोशनी हमारे समाज में फैलती गई, वैसे-वैसे इस सवाल की प्रासंगिकता भी बढ़ती गई: क्या वाकई ईश्वर की कोई आवश्यकता है?
हम शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं तो मंदिर या मस्जिद नहीं जाते, हम स्कूल जाते हैं – जहाँ शिक्षक हमें पढ़ाते हैं। बीमार पड़ते हैं तो हाथ जोड़कर आसमान की ओर ताकते नहीं रहते, हम अस्पताल जाते हैं – डॉक्टर की सलाह लेते हैं, दवा लेते हैं।
जब हमारे साथ कोई अन्याय या अपराध होता है, तो हम न्याय के लिए ईश्वर की मूर्ति के सामने नहीं रोते, हम थाने में एफआईआर दर्ज कराते हैं, अदालत में वकील की मदद से न्याय मांगते हैं। जब भूख लगती है, तो ईश्वर का नाम नहीं लेते – माँ का खाना याद आता है, रसोई में रोटी पकती है।
हमें जब कपड़े, अनाज, दवा या कोई ज़रूरत की चीज चाहिए होती है, तो ईश्वर नहीं, दुकानदार काम आता है। धरती पर जो भी भोजन उगता है, वह किसी अलौकिक शक्ति का चमत्कार नहीं – वह किसान की मेहनत, पसीना और ज्ञान का परिणाम है।
हमारे देश की रक्षा कोई ईश्वर नहीं करता – वह फौजी जवान करता है जो अपनी जान हथेली पर लेकर सरहद पर खड़ा होता है।
तो सवाल उठता है – अगर जीवन की एक-एक ज़रूरत के लिए हमें मनुष्य ही चाहिए, मनुष्य ही सहायक है, तो फिर ईश्वर की भूमिका क्या है? क्या वह केवल एक कल्पनात्मक सहारा है? एक ऐसा विचार जिसे हमने अपने डर, असुरक्षा, और अज्ञान के दौर में गढ़ लिया था?
ईश्वर को लेकर हमारी आस्था शायद कभी इस बात पर टिकी थी कि वह हमें देख रहा है, हमारी रक्षा कर रहा है, न्याय करेगा। लेकिन जब हर कदम पर हमें अपने विवेक, अपने प्रयास, और समाज की संस्थाओं की ओर देखना पड़ता है – तब ये कल्पना बेमानी लगती है।
इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि – ईश्वर की आवश्यकता वहीं तक है, जहाँ तक तर्क और अनुभव का प्रकाश नहीं पहुँचा। जैसे-जैसे मानव समाज शिक्षित, संगठित और जागरूक होता गया, वैसे-वैसे ईश्वर की उपयोगिता एक भावनात्मक प्रतीक बनकर रह गई – वास्तविक समाधान देने वाली शक्ति नहीं।
यह समय है कि हम ईश्वर की आड़ में छिपे भाग्यवाद से बाहर निकलें और अपने अधिकारों, ज़िम्मेदारियों और मानवीय प्रयासों पर भरोसा करना सीखें। क्योंकि दुनिया बदलती है कर्म से, कल्पना से नहीं।