"डा•अबेडकर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान लेकिन भारत में उन्हें उतना सम्मान क्यों नहीं?"सराहनीय है। मैं आपके विचारों का समर्थन करता हूं काफी जानकारी हासिल हुई

 





डॉ0अंबेडकर दुनिया सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान की भारत में उन्हें उतना सम्मान क्यों नहीं? डॉ बी०आर०अंबेडकर भारत के प्रधानमंत्री होते तो भारत विकसित राष्ट्र होता!

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       डा0अंबेडकर को भारत के प्रधानमंत्री बनने में कौन सी योग्यता की कमी थी,हमेशा भारत के लोगों ने उन्हें अछूत होने की हैसियत से क्यों देखा जा रहा है। पं0जबाहर नेहरू की जगह सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री कैसे होते, क्योंकि कैसे होते, सत्ता अंग्रेजों ने कांग्रेस पार्टी के हाथों में सौंपी, जवाहर लाल नेहरू उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, अध्यक्ष को सत्ता में प्रधानमंत्री की जुम्मेवारी दी गई, सरदार वल्लभ भाई पटेल को सत्ता में अहम् भूमिका गृहमंत्री की मिली, कश्मीर मुद्दा जो अतिसंवेदनशील उसमें गृहमंत्री की भूमिका में कश्मीर आर्टिकल -370,कशमीर स्पेशल दर्जा 35ए भी सरकार पटेल ने संसद में पास कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही, जबकि जवाहर लाल नेहरू बिदेशी यात्रा पर थे,उस समय कश्मीर को स्पेशल दर्जा मिला,तो दोषी कौन है?

       दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संबिधान लिखने बाले डॉ बी०आर०अंबेडकर यदि भारत के प्रधानमंत्री होते, तो भारत की तस्वीर कैसी होती, यह हर भारतीय को समझकर चिंता चिंतन करने की जरूरत है।

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         लेख का भाव समझने की जरूरत है, जो इस प्रकार हैं, जवाहर लाल नेहरु की जगह सरदार पटेल पीएम होते,तो देश के हालात कुछ और होते,यह सवाल नेहरु या कांग्रेस से नाराज हर नेता राजनीतिक दल हमेशा उठाते रहे हैं। लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया,कि अगर नेहरु की जगह अंबेडकर पीएम होते,तो हालात कुछ और होते। दरअसल अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर किसी ने कभी मान्यता ही नहीं दी है। डा0अंबेडकर एक अर्थशास्त्री, विधिविशेज्ञ,समाजशास्त्री कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ एक कुशल शासक भी थे, यह प्रथम कानून मंत्री बनकर सिद्ध करके दिखा दिया, डॉ बी०आर०अंबेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार करके नवयान बौद्ध सम्प्रदाय को धार्मिक ग्रंथ"दी बुद्धा हिज इज धम्मा"से दुनिया में बहुत ख्याति मिली, उन्हें बोधिसत्व की उपाधि से नवाजा गया।संबिधान निर्माता के तौर भी दुनिया में ख्याति मिली,ऐसे महामानव को आज भी भारत उतना सम्मान नहीं मिल रहा,जितना मिलना चाहिए।

            संविधान निर्माता को फिर दलितों के मसीहा के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर को कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया। लेकिन इतिहास के पन्नों को अगर पलटे और आजादी से पहले या तुरंत बाद में या फिर देश के हालातों को लेकर अंबेडकर तब क्या सोच रहे थे,और क्यों अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश नहीं हुई, मौजूदा वक्त में भी बाबा साहेब अंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए ही लोग,राजनेता, राजनैतिक दल के लोग प्रयोग करते नजर आते हैं, ऐसे लोगों के भाषणों से लोग भावुक हो जाते है,और लोगों को बोट दे देते हैं,लेकिन फिर भी यह नेता राजनेता राजनैतिक दल यह नहीं कहते,कि कहते कि अंबेडकर भारत के पीएम होते,तो भारत की तस्वीर बदल देते,यह डा0अंबेडकर का अपमान ही हम करते हैं,यह भेदभाव पूर्ण लोगों की सोच है।

             डा0आंबेडकर के लेखन,अंबेडकर के कथन और अंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें,कि वह उस समय देश को लेकर वह क्या सोच रहे थे, जिस दौर में देश गढ़ा जा रहा था। बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान की स्वीकृति के बाद 26 नवंबर 1949 को कहा “26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं।राजनीति में हम समानता प्राप्त कर लेंगे,  परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम यह सिद्दांत स्वीकार करेंगे,कि एक आदमी एक वोट होता है,और एक वोट का एक ही मूल्य होता है ।”यह पूर्णतया गलत है।

            सामाजिक,आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक, आर्थिक संरचना के कारण हम यह सिद्दांत नकारते रहेंगे,कि एक आदमी का एक ही मूल्य होता है। कब तक हम अंतर्विरोधों का यह जीवन बिताते रहेंगे। कहाँ तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? बहुत दिनों तक हम उसे नकारते रहे,तो हम भारत के राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल कर ही रहेंगे,जितनी जल्दी हो सके,हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना ही होगा,वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडित है,वह इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे।” यह चिंता चिंतन की जरूरत है।

            संविधान के सहारे देश को छोड़ा नहीं जा सकता है,बल्कि अंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे,जिस सच से अभी भी राजनीतिज्ञ और सत्ता के भूखे लोग आंखे मूंदे हुए है, लोग और राजनेता सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र ही नहीं करते है। यह चिंता का विषय है।

                राजनीतिक,आर्थिक व्यवस्था की समानता होनी चाहिये,वह नहीं है।तो इस बात की चिंता अंबेडकर में उस दौर में इतनी अधिक थी। कि 13दिसंबर1949 को नेहरु ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया,तो बिना देर किये अंबेडकर ने नेहरु के प्रस्ताव का भी विरोध किया,यह समझना होगा।

               अंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे,जिस दौर में नेहरु सत्ता के लिये बेचैन थे,और उसके बाद से बीते 70 बरस में यही सवाल हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करके सत्ता पाती रही है,फिर भी आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में पहुँच जाती है,---- अंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे,वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं। यह अलग बात है, कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की,लेकिन दोनो राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर अंबेडकर देश के पीएम होते, तो भारत विकसित राष्ट्र होता, यह समझना होगा।

              अंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे,और दूसरा उस दौर में डा0अंबेडकर सबसे उच्चकोटि के राजनेता थे, और किसी से कम नहीं थे। सबसे ज्यादा पढ़े लिखे व्यक्तियो में से थे,जो अमेरिकी विश्वविघालय में राजनीति, सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थनीति कैसी हो इस पर भी लिख रहे थे। यानी अंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता के तौर पर स्थापित कर सकते हैं। जिसने संविधान निर्माता के तौर पर काम कर रहे थे। राजनीतिक मान्यता के तहत देखें, तो उनसे बड़ा कोई भारत में राजनेता नहीं था। यह किसी ने नहीं सोचा होगा,कि महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे,और हिन्द स्वराज के जरीये संसदीय प्रणली,आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे, उस दौर में अंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इक्नामिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में बोल रहे थे।

                भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद किया, और पढ़ भी लिया।

आंबेडकर ब्राहमण व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे एक सिस्टम मानते थे| 1930 में उनका बहुत साफ मानना था, कि ब्राह्मण सिस्टम में अगर जाटव भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा,तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिसके अनुरुप कोई ब्राह्मण करता। अपनी किताब मार्क्स और बुद्ध में आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा और लिखा है। जिसके समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की जिस लकीर को गाहे बगाहे नेहरु से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में एससी-एसटी पिछड़ी जाति के लोग पिस रहे है।

      1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में अंबेडकर कहते है,भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग ही देश को सही नेतृत्व दे सकता है। मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है । संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते,उसी दौर में अंबेडकर अपनी किताब ,स्टेट्स एंड माइनरटिज में राज्यों के विकास का खाका भी खींचते नजर आते है । जिस यूपी को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बडे सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये,वही यूपी को स्पेटाइल स्टेट कहते हुये डॉ अंबेडकर ने यूपी को तीन हिस्से करने की लड़ाई आजादी से पहले ही करते रहे थे।

                डा0अंबेडकर ने अपनी किताब"स्माल होल्डिग्स इन इंडिया”में किसानों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाये हैं, जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है,अंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बता रहे थे। जबकि आज  किसानों के कर्ज माफी होने के बाद भी किसान परेशान रहते है। और कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र तो करती है,लेकिन यह होगा कैसे इसका रास्ता बता नहीं जानती है, डॉ अंबेडकर ‘स्माल होल्डिग्स ” में सभी उपाय बता चुके हैं, हर भारतीय को समझना चाहिए।

              डा0आंबेडकर ने नेहरु के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री के रूप में शामिल होने के बाद डा0 अंबेडकर ने ‌योजना आयोग देने को कहा था, क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक,आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे,वैसे उन्हें लगता रहा, कि आजादी के बाद जिस इक्नामी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है,वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं| अम्बेडकर ने उन्हीं सामाजिक हालातों के कारण नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया, डॉ बी०आर०अंबेडकर परिस्थितियों को ठीक करना चाहिते थे,जो आज भी ठीक नहीं है। 

             हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर ,हिन्दु महासभा और कई दूसरे संगठनों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरु किया था, तब संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में डा0आंबेडकर कानून मंत्री थे, फिर भी हिन्दू कोड बिल पर सहमति नहीं कर पाये,तो 27 सितंबर 1951को अंबेडकर ने नेहरु को इस्तीफा देते हुये लिखा “बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था, एक चीज मुझे रोके हुये थी, वह यह कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दूकोड बिल पास हो जाये। मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सीमित हो गया था, इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है, आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है।”

                  डा0अंबेडकर के उन इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी,अंबेडकर और लोहिया कभी राजनीति करते हुये नजर नहीं आयेंगे,बल्कि तीनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढना चाहते थे। आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में तीनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई,लेकिन उनके विचार को ही खारिज कर दिया,उनके जीवित रहते हुये उन्हीं लोगों ने किया,जो उन्हे अपना बनाते या मानते नजर आये,नेहरु -सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर होता है,लेकिन आजादी के बाद के हालात को अगर परखें तो उस वक्त देश को कैसे गढना है। यही सवाल सबसे बडा था, लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुये,कश्मीर, रोजगार से होते हुये,जाति-व्यवस्था उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये, उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तों को चुना,बीते 70 वर्ष से देश उन्ही मु्द्दों में आज भी उलझा हुआ है।

                 राजनीतिक सत्ता ही कैसे जाति-व्यवस्था से अलग सोच पाने में सक्षम नहीं है,तो इस सवाल को अंबेडकर ने नेहरु के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही अनेकों सवाल उठाए, जिन्हें नजरंदाज किया गया।

               डा0आंबेडकर पंचायत स्तर के चुनाव का भी विरोध कर रहे थे,क्योकि उनका साफ मानना था,कि चुनाव जाति में सिमटेंगे,जाति हीक्षराजनीति को चलायेगी,और असमानता इस देश की पहचान बना  जायेगी। जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी,और ध्यान दें तो हुआ यही है। अंतर सिर्फ यही आया है,कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढने के लिये तमाम सवालों को मथ रहे थे, तब देश की आबादी 31 करोड थी।

        आज भारत में एससी,एसटी की आबादी ही करीब 21 करोड हो गयी है।एससी,एसटी के 66%लोग शिक्षित है,लेकिन ग्रेजुएट महज 4% ही है। इतना ही नहीं 70%के पास अपनी कोई जमीन नहीं है। 85 फ़ीसदी एससी, एसटी की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है,आबादी 16 फ़ीसदी है,लेकिन सरकारी नौकरियों में एससी, एसटी की तादाद महज 3.96 फ़ीसदी है। एससी, एसटी के लिये सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है। 2016-17 में शिड्यूल कास्ट सब-प्लान आफ आल मिनिस्ट्रिज का महज 38,833 करोड दिया गया, जबकि आजादी के लिहाज से उन्हे मिलना चाहिये 77,236 करोड रुपये,पिछले बरस यानी 2015-16 में तो यह रकम और भी कम 30,850 करोड थी। आगे पीछे की कमोबेश यही कहानी है।

        आंबेडकर आजादी से पहले-आजादी के ठीक बाद यह मुद्दा उठाते रहे, उन सवालों के आईने में अगर बाबा साहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है, शोषितों के मसीहा के तौर पर देखता है,तो समझना जरुरी है। कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पीएम ने यह क्यों नहीं कहा, कि अंबेडकर को भारत का प्रधानमंत्री होना चाहिये था। यह बेहद महीन लकीर है, कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे, डॉ अंबेडकर नीतियां जन सरोकार के अनुकूल बनाना चाहिते थे,भारत की पॉलिसी ही अगर नीचे से उपर देखना शुरु कर देती,तो अंग्रेजों का बना बनाया सिस्टम बहुत जल्द खत्म हो जायेगा, यानी जिस नेहरु मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोडने की कोशिश की है,जिस नेहरु मॉडल को लोहिया ने खारिज कर समाजवाद के बीज बोने चाहे,इन दोनों को आत्मसात राजनीतिक सत्ता ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना, तो दूर आंबेडकर को शोषितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर खत्म करने की कोशिश मनुवादी विचारधारा कर रही है।

           हम डा0अंबेडकर के संबंध में ‌‌किसी निष्कर्ष पर हम कभी नहीं पहुंच पाए हैं,कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक व्यवस्था बाला देश है, भारत का संविधान दुनिया सबसे अच्छा संबिधान है, ऐसी दुनिया के देशों की राय है,लेकिन भारत के लोग इस संबिधान का बिरोध यह कहकर करते हैं,कि दुनिया के देशों की नकल करके भारत का संविधान बना है, इस पर मेरा कहना है,कि भारत का संविधान नकल करके बना, तो तुम लोग दुनिया की नकल करके शासन चलाने की बिधि सीख लो,भारत तरक्की कर जायेगा। इस ज़बाब का बिरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं होगा।

          भारत के शोषित वर्ग यदि डा0अंबेडकर को भारत का सर्वश्रेष्ठ राजनेता,सर्वश्रेष्ठ समाज सुधारक, समाजसेवी,राजनीतिज्ञ,सर्वश्रेष्ठ संबिधान निर्माता,नीति विशेषज्ञ,के रूप में समझने लगेगें,उस दिन स्वार्थों राजनेताओं को लोग नकारकर भारत के प्रधानमंत्री की तस्वीर डा0अंबेडकर में देखने लगेंगे,डा0 अंबेडकर की राजनैतिक, राष्ट्रभक्ति की हैसियत आंकने के लिए तीनों गोलमेज सम्मेलनों को पढ़कर तुलना करें, तो कोई तत्कालीन राजनेता कहीं नहीं दिखते नजर आयेंगे, यह समझना बहुत जरूरी है, चिंता और चिंतन करो।

        रुमसिहं राष्ट्रीय अध्यक्ष लेबर पार्टी आफ इंडिया,

आदरणीय रुम सिंह आपको मेरा दिल की गहराई से नमस्कार।आपका लेख "डा•अबेडकर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान लेकिन भारत में उन्हें उतना सम्मान क्यों नहीं?"सराहनीय है। मैं आपके विचारों का समर्थन करता हूं काफी जानकारी हासिल हुई । मेरा ऐसा मानना है कि हिन्दुओं में जो सवर्ण लाबी है वह हजारों सालों से धन, सम्पत्ति, शिक्षा पर पर कब्जा किए हुए है ही, वर्तमान में उनमें से अधिकांश बेईमान हैं जो इन्सानियत से या मानवता से देश के संसाधनों का जनसंख्या के हिसाब से हिस्सा देने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। वर्तमान में सरकार के तीन अंग हैं व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायालय।इन तीनों में लगभग 90प्रतिशत सवर्ण ही हैं। कोई समाज शिक्षा से ही आगे बढ़ेगा लेकिन बहुजन समाज में अधिकांश का आर्थिक स्थिति काफी जर्जर है तो वे शिक्षा में भी उनकी हालत दयनीय है। और वे सत्ता हासिल ही नहीं कर सकते। वर्तमान में तो मीडिया में भी सवर्ण लाबी का कब्जा है।अब तो 2014के बाद सरकार ने इ•डी•,सी•बी•आई•आदि संस्थाओं से भी भयभीत कर उनकी राजनीति खत्म करने का प्रयास किया है।

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