आज भारत के इतिहास का सबसे काला दिन है। -- यानी जनता मरे, कंपनी बचे।

 


आज भारत के इतिहास का सबसे काला दिन है।


सरकार एक ऐसा फैसला लेने जा रही है जो आज़ाद भारत के 75 सालों में कभी नहीं हुआ—और उम्मीद नहीं कि आगे 75 सालों में कोई सरकार इतनी गैर-जिम्मेदार होगी। मोदी सरकार ने विदेशी दबाव में देश की जनता की ज़िंदगी को दांव पर लगा दिया है।


मुद्दा क्या है?


आज इंडियन एक्सप्रेस की मुख्य खबर के अनुसार, मोदी सरकार परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से जुड़ी एक बड़ी नीति में बदलाव कर रही है। अब यदि किसी परमाणु संयंत्र में हादसा होता है और लोगों की मौत होती है, तो उस कंपनी पर कोई कानूनी जिम्मेदारी नहीं रहेगी। यानी जनता मरे, कंपनी बचे।


पुराना कानून क्या कहता था?


2010 में मनमोहन सिंह सरकार ने सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट बनाया था। इसके अनुसार अगर किसी विदेशी कंपनी के परमाणु संयंत्र से दुर्घटना होती है, तो कंपनी को मुआवजा देना होगा—जिसकी सीमा लगभग ₹1500 करोड़ थी। भारत सरकार अपनी ओर से ₹500 करोड़ जोड़ती थी और कुल ₹2000 करोड़ की जिम्मेदारी तय होती थी।


अब क्या बदला है?


सरकार ने इस कानून के सेक्शन 17(B) और CLND Rules, 2011 के नियम 24 में संशोधन कर दिया है। अब सप्लायर कंपनियों को हादसे के लिए कानूनी रूप से ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकेगा। कंपनियों के साथ ऐसा अनुबंध किया जा सकेगा जिसमें सप्लायर की ज़िम्मेदारी शून्य होगी।


यानी मुआवजा किसे देना होगा?


केवल सरकारी कंपनी और भारत सरकार जिम्मेदार होगी—यानी अंततः करदाताओं का पैसा जाएगा। जनता मरेगी, विदेशी कंपनी बचेगी।


इतना मुआवजा पर्याप्त है क्या?


जापान के फुकुशिमा हादसे में ₹16 लाख करोड़ का मुआवजा दिया गया था। वहीं भारत में सरकार ₹1600 करोड़ की सीमा तय कर रही है। फुकुशिमा में एक रिएक्टर लीक हुआ था और 1.6 लाख लोग विस्थापित हुए थे। भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में ऐसी ही दुर्घटना में 10-20 लाख लोग प्रभावित हो सकते हैं।


क्या भारत को परमाणु ऊर्जा की ज़रूरत है?


नहीं।

• परमाणु ऊर्जा सबसे महंगी है—₹9 से ₹12 प्रति यूनिट।

• थर्मल बिजली ₹4 से ₹6 और सोलर ₹2.5 से ₹3.5 प्रति यूनिट है।

• एक न्यूक्लियर प्लांट बनने में 15 साल लगते हैं।

• ये प्लांट खतरनाक हैं, और जिन इलाकों में लगाए जा रहे हैं (जैसे जयतापुर, कोंकण), वहां भूकंप और समुद्री आपदा का खतरा है।


दुनिया क्या कर रही है?


• जापान ने फुकुशिमा के बाद न्यूक्लियर प्लांट बंद करने का निर्णय लिया।

• जर्मनी 2023 तक न्यूक्लियर-फ्री बन गया।

• भारत, उल्टे, पुरानी और असुरक्षित तकनीक वाली यूनिट्स को आयात कर रहा है।


क्यों कर रही है सरकार ऐसा?


सरकार पर विदेशी लॉबी और भारत के कुछ बड़े उद्योगपतियों का दबाव है। अमेरिका की Westinghouse, फ्रांस की EDF, और रूस की Rosatom को फायदा पहुंचाने के लिए भारत को ‘डंपिंग ग्राउंड’ बना दिया गया है।


जनता की आवाज़ क्यों नहीं उठ रही?


क्योंकि विरोध करने वालों को ‘अर्बन नक्सल’, ‘टूलकिट गैंग’ कहकर बदनाम किया जाता है। न मीडिया में चर्चा होती है, न संपादकीय छपते हैं। एनवायरमेंटल क्लीयरेंस जैसी ज़रूरी प्रक्रियाओं को भी समाप्त कर दिया गया है। अब प्लांट पहले लगेगा, मंज़ूरी बाद में मिलेगी—पोस्ट फैक्टो क्लीयरेंस।


परमाणु कचरा भी बड़ा संकट है


इस कचरे की रेडिएशन क्षमता 10,000 साल तक रहती है। भारत में इसके सुरक्षित निष्पादन की कोई योजना नहीं है। नतीजा—धरती, समुद्र और भूजल सब प्रदूषित होंगे।


निष्कर्ष


यह नीति न केवल जनविरोधी है, बल्कि सीधे-सीधे विदेशी कंपनियों और पूंजीपतियों के पक्ष में है। मोदी सरकार ने जनता से कोई राय नहीं ली, कोई पारदर्शिता नहीं रखी, और देश के लोगों की ज़िंदगी से खिलवाड़ किया है।


अब क्या किया जाए?

• देश में जनजागरण ज़रूरी है।

• अधिक से अधिक लोगों को इस मुद्दे की जानकारी दीजिए।

• इस तरह की नीतियों का विरोध करें, आंकड़ों के साथ जागरूकता फैलाएं।


आप चाहें तो मेरे ईमेल या कमेंट में लिखकर आंकड़े मांग सकते हैं। यह लड़ाई जनता की है, क्योंकि सरकार तो अब विदेशी कंपनियों के साथ खड़ी है।

Featured Post

चलो घोंगापाल बौद्धों की विरासत को देखने

  चलो चलो चलो घोंगापाल  बौद्धों की विरासत को देखने      🙏🏽सभी को जयभीम 🙏🏽 ता 1,6,25 को सुबह 6 बजे  रायपुर  से निकलना हैं रायपुर से घोंगा...