शर्म तो मूलनिवासी को आने की जरूरत है। चार हजार वर्षों से जुल्म थोपे , मूलनिवासी ने भोगे, सहे, झेले। उस से कोई सबक नहीं लिया। बीजेपी कांग्रेस को अलग माना।

 


 शर्म तो मूलनिवासी को आने की जरूरत है। चार हजार वर्षों से  जुल्म थोपे , मूलनिवासी ने भोगे, सहे, झेले। उस से कोई सबक नहीं लिया। बीजेपी कांग्रेस को अलग माना। अलटा पलटा करते रहे। अब इवीएम थोप कर खुंटा गाड़ दिया ब्राहमण वादी सत्ता का। अब उखाड़ना कठीन पड़ रहा। फिर मूलनिवासी ब्राहमण वादी व्यवस्था  मान कर मजबूत करते जा रहे। इसलिए मूलनिवासी को शर्म मेहसूस करने की जरूरत है। बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञा 100% व्यवहार में मानते हैं तो ब्राहमणवाद जल्दी कमजोर होगा। कमजोर को पराजित करना आसान है। बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञा तथागत बुद्ध की विचारधारा, सिद्धांत का सार है। 


नायक हमेशा दुश्मनो से बॉर्डर पर लड़ते हैं 

और नालायक माफ़ीवीर की औलादें हमेशा अपनों से देश में ही लड़ते हैं...! 

अब तो यही करेंगे नालायक माफ़ीवीर की औलादें बॉर्डर पर लड़ने वाले नायक गायब और गद्दी पर बैठने वाले बैनर में चिपके है प्रचार के लिए

यह सेना का मनोबल कम और भक्तों का मनोबल बढ़ा नहीं रहे तो और क्या कर रहे है


मूलनिवासी चार हजार वर्षों से ,  विदेशी युरेशियन का  गैर बराबरी का जुल्म  झेलने, भोगने, सहने , पिछड़े पन  का कारण  अनुशासन हीनता का सामूहिक चरित्र रहा ? अनुशासन शील और अनुशासनहीन के कारण का केंद्र मनुष्य शरीर में कहां पर है? 1950 के बाद  दुश्मन द्वारा थोपी ग ई  सामाजिक कुरीतियां, विषमताएं,  मनवाने के लिए दुश्मन डंडा लेकर घर नहीं आ रहे कि चलो हमारी व्यवस्था को मानो। मूलनिवासी खुद ही दुश्मन की थोपी व्यवस्था  को मान कर दुश्मन को मजबूत कर रहे। मूलनिवासी खुद दुश्मन की व्यवस्था मान कर दुश्मन को मजबूत कर रहे  तो दुश्मन को कमजोर करने का , मूलनिवासी संगठन में क्या तरीका है, क्या उपाय है, क्या रणनीति है? यह स्पष्ट नहीं है । दुश्मन द्वारा , मूलनिवासी पर थोपी व्यवस्था को बदलने के लिए कार्यकर्ता, पदाधिकारी में बदलाव लाने की बजाय , खुद ही  उस व्यवस्था में शामिल कर , थोपी व्यवस्था को मजबूत कर रहे। अनुसरण, अनुकरण कैसे हैगा? पदप्रभारी ही थोपी व्यवस्था में शामिल करते तो आदर्श, प्रेरणा समाज को कैसे मिलेगा?

मरे जानवर का मांस खाकर जीने से मरना बेहतर है!

मूलनिवासी, पदप्रभारी , कार्यकर्ता दुश्मन की थोपी व्यवस्था  को मानकर दुश्मन को मजबूत करना शान समझते तो इसे छोड़कर कर जिंदा कैसे रहेंगे? यह सवाल कटु है। मूलनिवासी संगठन में जो कार्यकर्ता से लगा कर शीर्ष तक के पदप्रभारी हैं, वे दुश्मन की थोपी व्यवस्था को मान कर दुश्मन को मजबूत करना बेहतर समझते हैं तो मूलनिवासी संगठन दूश्मन की कौनसी व्यवस्था बदलने के लिए आंदोलन चला रहे? इसका जवाब अनुत्तरीय है। 

मूलनिवासी संगठन कीचड़ में रह कर कीचड़ साफ करने में सभी गैर राजनीतिक जड़े व्यर्थ जाया की और की जा रही। दुश्मन की थोपी व्यवस्था को कमजोर, खत्म करने के लिए , मूलनिवासी संगठन में इस प्रकार का कोई भी कार्यक्रम चलाते दृष्टिगोचर नहीं है। 

दुश्मन की व्यवस्था को कमजोर खत्म किए बिना दुश्मन को कमजोर नहीं कर सकते। यह बात मूलनिवासी संगठन मंच से कहा जाता भीतर पालन नहीं। तो अनुशासन कहां  ? अनुशासन सभी पर पर लागू पालन हो तभी अनुशासन का कहने का मूल्य है। कहे , वो ही , न माने तो व्यापक कैसे संभव? चरित्र का विकास नहीं। चरित्र तो पहले से निर्धारित है वो है पंचशील का पालन। इसमें विकास नहीं , व्यवहार में पालन जरूरी। तथागत बुद्ध , बाबा साहब ने पालन किया पूरा प्रभाव परिणाम दिखा। अब अनुशासन कहने भर के लिए रह गया , व्यवहार में पालन दूर दूर तक दृष्टिगोचर नहीं। मूलनिवासी संगठन के मंच से,  तथागत बुद्ध, बाबा साहब के जीवन चरित्र, समझ, त्याग , संघर्ष की बातें , बात को प्रभावी बनाने के लिए कही जाती भीतर व्यवहार में पालन दृष्टिगोचर नहीं। मूलनिवासी संगठन में निष्पक्षता जरूरी।

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