अंतिम यात्रा – वैशाली से कुसीनारा तक:




महामानव बुद्ध का महापरिनिर्वाण

(वैशाख पूर्णिमा की मध्यरात्रि, ई.पू. 483)


अंतिम यात्रा – वैशाली से कुसीनारा तक:


तथागत बुद्ध की अंतिम यात्रा वैशाली से आरंभ हुई। वहाँ उन्होंने महावीर के अनुयायियों को अपने मार्ग पर प्रेरित किया। वैशाली में जब अकाल पड़ा और महामारी फैली, तब महालि लिच्छवि ने उन्हें आमंत्रित किया। बुद्ध पाँच सौ भिक्षुओं सहित पहुँचे। जैसे ही उन्होंने वज्जि राज्य की सीमा में प्रवेश किया, वर्षा हुई और अकाल समाप्त हो गया। लोगों ने इसे बुद्ध का चमत्कार माना और उनका सम्मान किया।


वर्षा ऋतु बीतने पर वे राजगृह लौटे और फिर से वैशाली आए। उन्होंने आनंद से कहा, “यह मेरी वैशाली की अंतिम यात्रा है,” और अपना भिक्षापात्र वहाँ स्मृति-चिह्न के रूप में छोड़ दिया।


पावा में अंतिम भिक्षा:


पावा (पावापुरी) में चुन्द नामक सुनार ने बुद्ध को आम्रवन में आमंत्रित किया और उन्हें ‘सूकरमद्दव’ नामक व्यंजन परोसा। यह भोजन बुद्ध के शरीर के अनुकूल नहीं पड़ा और उन्हें गंभीर रोग हो गया। परन्तु उन्होंने बिना शिकायत सहन किया और कहा, “आओ आनंद, अब हम कुसीनारा चलें।”


कुसीनारा में प्रवेश:


यात्रा के दौरान मार्ग में उन्होंने विश्राम किया, जल माँगा और आनंद से सालवन में चलने को कहा। वहाँ जुड़वाँ साल वृक्षों के मध्य विश्राम करते हुए उन्होंने अंतिम उपदेश दिए।


अंतिम दीक्षा – सुभद्र परिव्राजक:


सुभद्र नामक एक परिव्राजक तथागत से मिलने आया। आनंद ने उसे तीन बार रोका, पर बुद्ध ने अनुमति दी। सुभद्र ने बुद्ध से धर्म का सार पूछा और तथागत ने आर्य अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया। सुभद्र ने बुद्ध, धर्म और संघ की शरण ली। बुद्ध ने उसे स्वयं संघ में दीक्षित किया – वह उनका अंतिम शिष्य था।


आनंद का शोक और अंतिम उपदेश:


बुद्ध ने आनंद से कहा, “रोओ मत। तुम सदैव मेरे प्रति मैत्रीपूर्ण, करुणामय और हितकारी रहे हो। प्रयासशील रहो, अप्रमादी रहो – तुम भी विकारों से मुक्त हो जाओगे।”


जब आनंद ने निवेदन किया कि किसी प्रमुख नगर में महापरिनिर्वाण लें, बुद्ध ने उत्तर दिया, “यह कुसीनारा कभी राजा महासुदर्शन की राजधानी रही है, इसलिए यह स्थान भी सम्मानित है।”


उन्होंने आनंद को दो निर्देश दिए:

1. चुन्द के भोजन को लेकर कोई भ्रांति न फैले।

2. मल्लों को सूचना दी जाए ताकि वे अंतिम दर्शन कर सकें।


महापरिनिर्वाण:


रात्रि के अंतिम प्रहर में बुद्ध ने शांति से अंतिम श्वास ली। कुछ भिक्षु फूट-फूट कर रो पड़े, कुछ मौन रहे। वैशाख पूर्णिमा की वह मध्यरात्रि इतिहास में ‘महापरिनिर्वाण’ की रात्रि बन गई।


अंत्येष्टि:


कुसीनारा के मल्लों ने सातवें दिन मुकुटबन्धन चैत्य पर बुद्ध के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया। उनका शरीर राख में विलीन हो गया।


देवों की गाथा:


देवों ने यह गाथा कही:


अनिच्चा वत संकारा, उप्पादवयधम्मिनो ।

उप्पज्जित्वा निरुझन्ति, तेसं वूपसमो सुखो ॥


(सभी संयोगजन्य वस्तुएं अनित्य हैं, उत्पत्ति और विनाश उनका स्वभाव है। उनका शांत हो जाना ही परम सुख है।)

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