*हम पढ़-लिख कर भी संगठित क्यों नहीं हो सके —शायद इस की वजह है,अहंकार, तिरस्कार और मतभेद।*
. बाबासाहेब डॉ आंबेडकर ने हमें शासक बनने की दिशा में तीन सूत्रों का मार्ग दिखाया—“पढ़ो, एकजुट बनो और संघर्ष करो।” इस मार्गदर्शन के अनुसार हमारे समाज ने शिक्षा को अपनाया, बड़ी संख्या में लोग शिक्षित हुए, उच्च शिक्षा तक पहुँचे। लेकिन दुर्भाग्यवश, समाज में एकता स्थापित करने में हम अब भी असफल हैं।
हमने शिक्षा तो पाई, लेकिन एकजुटता का बीज नहीं बोया। यह सवाल कभी गंभीरता से नहीं उठाया गया कि इतने वर्षों बाद भी हम एकजुट क्यों नहीं हो पाए। इस असफलता की गहराई से समीक्षा आज भी बाकी है।
एकजुटता की नींव सामाजिक सद्भावना में होती है। जब तक हमारे भीतर आपसी प्रेम, बंधुता और करुणा का भाव विकसित नहीं होगा, तब तक केवल विचारों की समानता से संगठन खड़ा नहीं हो सकता। अहंकार, प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या का त्याग किए बिना हम साथ नहीं आ सकते।
दुर्भाग्य से, हमारे समाज में ये मानवीय गुण—भाईचारा, मैत्री, सहानुभूति और परस्पर सम्मान—गंभीर रूप से अनुपस्थित हैं। छोटी-छोटी बातों पर हम कट्टर दुश्मन बन जाते हैं। इसका एक स्पष्ट उदाहरण सोशल मीडिया पर देखने को मिलता है, जहाँ विचारों में मामूली मतभेद होने पर खुद को जागरूक कार्यकर्ता कहने वाले लोग एक-दूसरे को अपमानित करने लगते हैं।
ऐसी मानसिकता के साथ, क्या हम किसी व्यापक सामाजिक परिवर्तन या संगठित संघर्ष की कल्पना कर सकते हैं?
भगवान बुद्ध ने अपने जीवन और भिक्षु संघ के माध्यम से सामाजिक एकता का जीता-जागता आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने राजा अजातशत्रु जैसे शत्रु को भी क्षमा किया, और उसे ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक साधन की तरह इस्तेमाल किया। उन्होंने वेश्या आम्रपाली को भिक्षुणी बनाया, डाकू अंगुलीमाल को अपनाया, और चांडाल सुनित को संघ में स्थान दिया।
बुद्ध ने कभी किसी के अतीत को उसकी पहचान नहीं बनने दिया, बल्कि उसे सुधार का अवसर दिया। उन्होंने क्षत्रिय अहंकार को तोड़ते हुए सबसे पहले नाई उपाली को संघ में दीक्षित किया और बाद में शाक्य राजपुत्रों को। यही वह रास्ता था जिसने समाज में समानता, स्वतंत्रता और बंधुता की भावना को जन्म दिया—और यहीं से हम सम्राट बने।
अब प्रश्न यह है: क्या हमारे भीतर अपने ही समाज के लोगों के लिए इतनी करुणा, विनम्रता और अपनत्व है? आज हमारा समाज अपने ही लोगों को शक और तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। हर कार्यकर्ता की नज़र में दूसरा कार्यकर्ता दलाल या गद्दार है। जो आज मित्र है, वह कल दुश्मन बन सकता है।
क्या इस Intolerant, Suspicious और आत्मकेंद्रित सोच के साथ हम कोई संगठन खड़ा कर सकते हैं?
हमें यह स्वीकार करना होगा कि समाज में हर व्यक्ति एक जैसा नहीं होता। सभी में कुछ न कुछ कमज़ोरियाँ होंगी। लेकिन हमें उन्हें उनके संपूर्ण अस्तित्व के साथ अपनाना होगा, उनके साथ स्नेह और धैर्य बनाए रखना होगा।
तभी एक सच्ची सामाजिक एकता संभव होगी—और तभी हम किसी संगठित संघर्ष के योग्य बन सकेंगे।
*नमो बुद्धाए। जय भीम।*