यह घटना सन 1932 की है। जब बाबा साहब अपने एक साथी वकील, गडकरी के साथ एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए पुणे जा रहे थे।

 


यह घटना सन 1932 की है। जब बाबा साहब अपने एक साथी वकील, गडकरी के साथ एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए पुणे जा रहे थे। वे पनवेल में रोड के किनारे एक चाय की दुकान देखकर चाय पीने के लिए रुके। गाड़ी में बैठे उनके साथी वकील, गडकरी ने आवाज दी, "भाई दो कप चाय भिजवाना। चाय अच्छी बनाना, गाड़ी में डा० अम्बेडकर बैठे हैं।"


चाय वाले की दुकान पर काम करने वाला एक लड़का जैसे ही दो गिलास पानी लेकर गाड़ी की तरफ जाने लगा, चाय वाले ने लडके के हाथ पर हाथ मारा और गिलास गिर कर टूर गए। फिर गुस्से में बोला, "बहुत पढ़-लिख गया, तो वामन थोड़े ही बन जायेगा। तुम लोगों को चाय तो क्या, पानी भी नहीं मिलेगा।"


वहीं खड़ा, पास के गाँव का एक मजदूर 'सोनबा' यह दृश्य देख रहा था। वह चिल्लाया, "मेरे बाबा को तुम पानी नहीं पिला सकते तो कोई बात नहीं, अपने बाबा को मैं पानी पिलाऊंगा।" यह कह कर सोनबा पानी लाने के लिए अपने गाँव की तरफ दौड़ गया।


बाबा साहब डा०अम्बेडकर का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। उन्होंने कहा, "उफ़! इतनी छुआछूत! जातिवाद से भरी हुई घृणित मानसिकता! जातीय अहंकार ने मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा।" उन्होंने गडकरी से आगे बढ़ने के लिए कहा।


थोड़ी देर बाद सोनबा पानी का भरा मटका लेकर वहां पहुंचा, लेकिन तब तक बाबा साहब वहां से जा चुके थे। वह बहुत निराश, हताश, दुखी हुआ। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। रोते-रोते, बस यही कह रहा था, "मेरे बाबा प्यासे रह गए, मैं उन्हें पानी नहीं पिला सका।" सोनबा घड़ा लेकर पूरी रात वहीँ एक पेड़ के नीचे बैठा रहा, इस उम्मीद में कि, बाबा साहेब वापस जरूर आयेंगे और वह उन्हें पानी पिलाकर धन्य हो जायेगा।


 सोनबा के लिए वक्त जैसे वहीँ ठहर गया। अब सोनबा का यह नियम बन गया, वह हर रोज घड़े में भरकर पानी लाता, और उस पेड़ के नीचे बैठ जाता और रात होने पर वापस अपने घर लौट जाता। हर दिन वह बाबा साहेब के वापस आने की प्रतीक्षा करता। बाबा साहेब के वहां से होकर गुजरने का वह सात साल तक इंतज़ार करता रहा।  सोनबा, बस यही बड़बड़ाता रहता, "हाय! मेरे बाबा प्यासे चले गए, उन्हें बहुत प्यास लगी होगी, मैं उन्हें पानी जरूर पिलाऊँगा, मेरे बाबा एक दिन जरूर आएंगे".


कई वर्षों बाद जब बाबा साहब को एक मित्र से इस घटना की जानकारी मिली, तो वे सोनबा के बारे में सोच कर अत्यंत भावुक हो गए, और तुरंत ही अपने एक मित्र के साथ सोनबा के हाथ का पानी पीने के लिए निकल पड़े। जब बाबा साहब पनवेल नाके पर पहुंचे, तो वहां सोनबा तो नहीं मिला, लेकिन वहां पेड़ के नीचे एक टूटा हुआ घड़ा जरूर मिला। पूछने पर पता चला कि, कुछ दिन पहले,सोनबा अपनी अधूरी आस लिए चल बसा।


बाबा साहब का ह्रदय विह्वल हो उठा, आँखें डबडबा आईं। एक आदमी से कह कर कुछ फूल मंगाए और टूटे घड़े के टुकड़े एकत्र करके सोनबा को श्रद्धा सुमन अर्पित किए। उनके आंसुओं ने पलकों के बाँध तोड़ दिए। झर-झर बहते आंसुओं ने टूटे घड़े के टुकड़ों में समाए सोनबा को सराबोर कर दिया।


 बाबा साहब के मुख से निकली हुंकार में ये शब्द थे, "मेरे प्यारे सोनबा! तुम्हें मारने वाली और मेरे करोड़ों भाई-बहनों को कुत्ते-बिल्ली की तरह समझने वाली इस अंधी-बहरी व्यवस्था को मैं एक दिन अवश्य बदल डालूँगा। हे! सोनबा, तेरी इस अपार श्रद्धा ने मुझे हजार हाथियों का बल दिया है।"


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