*न्याय के मंदिर में न्याय प्रतिमा से परहेज कैसा..? *
ग्वालियर हाईकोर्ट परिक्षेत्र में बाबा साहेब अंबेडकर की प्रतिमा स्थापना को लेकर मैदानी और सोशल मीडिया पर वैचारिक संघर्ष सुर्खियों तक पहुंच चुका है। इसमें निर्मित दो पक्षआमने-सामने हैं। इनमें से एक वकीलों की टोली है जो प्रतिमा स्थापना रोकना चाहती है, दूसरी ओर प्रतिमा लगाने को प्रतिबद्ध युवाओं को बायपास कर भीम आर्मी से जुड़ी एक लोकल टीम उभर कर आई है। अब मामला दम साधे प्राधिकारियों के हाथों से फिसल रहा है। ऐसे में इंतजार है कि अंत क्या होगा? अनंतिम रूप से जो होना है वह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन ये ऐसा हुआ क्यों? जो हुआ वह स्वभाविक/स्वमेव था या इनके पीछे मास्टर प्लेयर्स हैं जिनके लक्ष्य ऐसी परिस्थितियों से लाभ उठाना है। इस मामले का जिक्र इसलिए क्योंकि ग्वालियर-चंबल दलित चेतना का वह वाइब्रेंट क्षेत्र है जिसने वर्ग संघर्ष जैसे हालातों से बचते हुए चुनावी नतीजे प्रभावित की ताकत दिखाई है। ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है उस पर पूर्ण प्रज्ञा के साथ नजर बनाए रखने की जरूरत है, क्योंकि इसके नतीजों के असर दूरगामी होंगे। असल में न्याय के मंदिर में जिस अंबेडकर की मूर्ति लगाने का विरोध किया गया है वह तो किसी भी न्याय मंदिर में देव रूप में प्रतिष्ठित किए जाने के पात्र हैं... डॉ अंबेडकर भारतभूमि के वह सपूत हैं जिन्होंने लैंगिक से लेकर सांप्रदायिक तक और गरीब से लेकर रिचेस्ट तक के लिए नेशनल फ्रेमवर्क में सोचा और भेदभाव की दीवारों को गिराते हुए सबके विकास के लिए रास्ते खोलने पर काम किया। जिन्होंने देश को ऐसा न्यायिक विधान दिया जिसकी सुरक्षा छत्री के तले लोकतंत्र हर विघटनकारी आंधी पाले से सुरक्षित रहता है। उन्हें किसी भी जाति वर्ग के दायरे में समटेने की हर कोशिश को पुरजोर तरीके से रोकना देश/तंत्र का कर्तव्य है।
बाबा साहेब ने देश को जो दिया है उसकी झलक यह है कि... तात्कालिक भारत की सबसे बड़ी आबादी गरीब, मजदूर और किसान जो करीब 85 फीसदी थे उनके तारणहार बने। इनके लिए बाबा साहेब ने न्यूनतम मजदूरी, कारखाना अधिनियम,मजदूर संघों की मान्यता, मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के रूप में बेरोजगारी भत्ता, मातृत्व लाभ, और स्वास्थ्य बीमा सुनिश्चित कराने का प्रबंध किया। उन्होंने श्रमिकों को समान अवसर प्रदान करने की वकालत की। मजदूर हक के लिए उन्होंने वर्णवाद और जातिगत भेदभाव के खिलाफ तक आवाज उठाई। 1936 में बाबा साहेब इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना कर निर्वाचित हुए। 1942 को वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य के रूप में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने श्रम पोर्टफोलियो का प्रबंधन किया। बॉम्बे विधान परिषद और वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य के रूप में काम के घंटे 14 से घटाकर 8 कराए। मजदूरों को दुर्घटना बीमा, प्रोविडेंट फंड, टीए-डीए, मेडिकल लीव और छुट्टियों जैसे लाभ भी दिलाए। मजदूर हित के लिए कोल एंड माइंस सेफ्टी समेत 10 बिल ड्राफ्ट किए। बाबा साहेब की हुकुमतों से इतनी बड़ी जंग बगैर किसी जातीय या धार्मिक भेदभाव के थी। तात्कालीन भारत में आधी जनसंख्या के रूप में कठिन जिंदगी जीने वाली स्त्रियों को बाबा साहेब ने वह अधिकार भी दिलाए जिन्हें पुरुषप्रधान सत्ता ने धर्म ग्रंथों के माध्यम से बाधित किया था।पहले कानून मंत्री के रूप में आंबेडकर ने यूनिफॉर्म सिविल कोड से लेकर हिन्दू कोड बिल को लाने में ताकत लगाई ताकि महिलाओं को बराबरी के अधिकार मिले। उन्हें पति और पिता की सम्पत्ति में हक/हिस्सा। तलाक, पति की हैसियत के हिसाब से भरण पोषण। दत्तक पुत्र पुत्री गोद लेने व सम्पत्ति संरक्षण। अपनी मर्जी से जीने ओर आने- जाने का हक दिलाया। उन्होंने राष्ट्रीय आर्थिक नियोजन, राज्य के स्वामित्व और नियंत्रण में बुनियादी उद्योगों की आवश्यकता के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिए औद्योगिकीकरण को महत्वपूर्ण माना। जिसके लिए रिर्जव बैंक और बैंकिंग की कई अवधारणओं को जमीन पर उतारा। साथ ही कृषि में पूंजी निवेश और भूमि सुधार / उचित वितरण की आवश्यकता पर बल दिया।
अंबेडकर का यही नजरिया देश की उद्म क्रांति और कृषि क्रांति की नींव बना। इसमें भी कहीं जातीय या धार्मिक विभेद नहीं था। लेकिन तात्कालिक भारत में ऊंच-नीच से जूझते समाज को समरस बनाने वे हर स्तर पर लड़े। उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए उन्होंने आर्थिक समानता के लिए आरक्षण जैसे प्रावधान भी कराए। दलित- वंचितों के लिए बाबा साहेब के कार्य उनकी क्षमताओं, प्रदर्शन और उपलिब्धियों के परिमाण में नगण्य हैं फिर भी बार-बार उन्हें जातीय दायरे में बांधने की कोशिशें की जाती रही हैं... ग्वालियर में जो हुआ है और हो रहा है वह भी इससे जुदा नहीं है। मूर्ति स्थापना के लिए वैधानिक दायरे में काम कर रहे युवाओं की मुहीम के बीच सोशल प्लेटफार्म के जरिए सांगठनिक टोली बाजों ने दो पक्ष निर्मित कर दिए। वहीं वातावरण को वैमन्स्यपूर्ण कर समर्थन हासिल करने की सस्ती कोशिशें की, जिसका आखिरी एपीसोड मारपीट और भड़काऊ सुर्खियों तक जा पहुंचा। ओशो ने कहा था मानवीय विकास में धर्म सर्वोत्तम है और राजनीति निकृष्टतम... ये फिर प्रासंगिक साबित हुआ, अब ये प्राधिकारियों और सत्ताओं की जिम्मेदारी है कि देश के महान सपूत के सम्मान पर जातीय राजनीति से कोई धब्बा न लगे।
( लेखक प्रदेश टुडे मीडिया समूह के संपादक हैं)