यह पोस्ट बेहद ज़रूरी और विचारोत्तेजक है, खासकर तब जब युद्ध की मांग करना एक फैशन बन गया है और “राष्ट्रभक्ति” को सैन्य हिंसा से जोड़ कर देखा जाने लगा है। जिस मेडिकल छात्रा ने युद्ध-विरोधियों से सवाल पूछे, उसका गुस्सा समझा जा सकता है — लेकिन जो जवाब इस पोस्ट में दिया गया है, वह तात्कालिक उत्तेजना से नहीं, गहराई से निकला हुआ जवाब है।
दरअसल, सवाल आतंकवाद का नहीं, राजनीतिक संरचना का है जो धार्मिक उन्माद को खाद-पानी देती है। जब तक भारत और पाकिस्तान की राजनीति जनहित की जगह धर्म, जाति और राष्ट्रवाद के उन्माद पर टिकी रहेगी, तब तक आतंकवाद एक ‘उपयोगी दुश्मन’ बना रहेगा — जिसे समय-समय पर भुना कर चुनावी जीत पक्की की जाती रहेगी।
इस पोस्ट की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह हमें “सीमा के उस पार के दुश्मन” से ज़्यादा अपने भीतर के सांप्रदायिक, पूंजीपरस्त, मर्दवादी राजनीति की ओर देखने को कहती है — जहाँ असली युद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह बताता है कि युद्ध सिर्फ गोलियों से नहीं, विचारों से भी लड़ा जाता है। और स्थायी समाधान तभी मुमकिन है जब हम संघर्ष की जड़ों को पहचानें — न कि केवल उसकी शाखाओं को काटने की कोशिश करें।
हमें यह समझना होगा कि युद्ध-समर्थक मानसिकता सिर्फ सुरक्षा नहीं, सत्ता का एक उपकरण है। और यदि हम सचमुच शांति चाहते हैं, तो हमें युद्ध से नहीं, न्याय से शुरुआत करनी होगी।